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________________ ४८२ उपमिति-भव-प्रपंच कथा को अवश्य कोई भूत लगा है, अत: उसे खूब मारा, उसके हाथ पीछे से बांध दिये और उसकी मुश्कें बाँध दी । तदनन्तर उन्होंने सदाशिव आचार्य को छुड़ाया। थोड़ी देर बाद प्राचार्य में चेतना आई । देवकृपा से वे बच गये। फिर सभी शिवभक्तों ने मिलकर शान्तिशिव से पूछा-अरे भले मनुष्य ! तू आचार्य भट्टारक के साथ ऐसा र्दुव्यवहार क्यों कर रहा था ? शान्तिशिव ने बडे भोलेपन से कहा-अरे मूर्यो ! वैद्यराज ने भट्टारक के बहरेपन को मिटाने के लिये जिस औषधि का उपदेश दिया था, मैं तो उसी का प्रयोग कर रहा था। तुम मुझे छोड़ो और मुझे भट्टारक जी की व्याधि को दूर करने दो। व्याधि की उपेक्षा मत करो। शिवभक्तों ने सोचा कि अवश्य ही शान्ति शिव को भूत लगा है । उन्होंने उससे कहा-'देख, तू फिर ऐसा नहीं करने की प्रतिज्ञा करे तो तुझे छोड़ दें।' शान्तिशिव बोला--"अरे भले मनुष्यों ! क्या मैं तुम्हारे कहने से हमारे गुरु महाराज के रोग की दवा भी न करूं? मैं तो जैसा वैद्यराज ने कहा है वैसा ही करूंगा। तुम्हारे कहने से नहीं रुकूगा।' शान्तिशिव की बात सुनकर शिवभक्तों ने वैद्यराज को बुलाया और उन्हें सब घटना सुनाई । वैद्यराज अपने मन में हँसते हुए बोले-भट्टारक ! मेरा लड़का तो बहरा नहीं है । बात ऐसी है कि मैंने बहुत परिश्रम पूर्वक उसे वैद्यक शास्त्र की बड़ी-बड़ी पुस्तकों को पढ़ाया है, पर उसे खेलकूद की ऐसी आदत पड़ गई है कि मेरे कितना ही समझाने पर भी वह उन वैद्यक शास्त्रों के अर्थ एवं विधि को ग्रहण नहीं करता । इसीलिये मुझे क्रोध आ गया और मैंने उसे मारा । यह तो कोई बहरेपन की दवा नहीं है । यह मेरा लड़का तो इस औषध (मार) के प्रभाव से समझ गया है, अर्थात् यह औषध गुण कर गई है । परन्तु, मेरी बात सुनकर बिना मुझे पूछे भट्टारक की ऐसी औषधि तुझे नहीं करनी चाहिये थी। शान्तिशिव--- बहुत अच्छा वैद्य जी ! अब ऐसा नहीं करूंगा। किसी भी प्रकार हमारे से भट्टारक ठीक होने चाहिये । यदि वे किसी दूसरे उपाय से ठीक होते हैं तो फिर इस औषधि की क्या आवश्कता है। तदनन्तर शान्तिशिव के वादा करने पर लोगों ने उसे छोड़ दिया। भावार्थ : प्रश्न विमर्श भाई प्रकर्ष ! यदि तू भी शान्तिशिव की भाँति जितना मैं कहूँ उसे ही सुने और उसके भावार्थ को न समझे तो बेचारे भौताचार्य के जैसी दुर्दशा तू मेरी भी कर सकता है। इसीलिये तुझे कह रहा हूँ कि मेरी बात का भावार्थ समयसमय पर प्रश्नोत्तर के माध्यम से मुझ से पूछ लिया कर। __ प्रकर्ष--मामा! आपने तो बहुत बढ़िया कथा सुनाई । अब मुझे जो कुछ पूछना है वह आपसे पूछ लेता हूँ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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