________________
४५४
उपमिति-भव-प्रपंच कथा
कोई स्वर्ग से भ्रष्ट होकर मृत्युलोक में आई हुई देवांगना तो नहीं है ? अथवा पाताल से निष्कासित नागकन्या तो यहाँ नहीं आई है ? नहीं-नहीं, मेरे विचार समीचीन नहीं है। क्योंकि स्वर्गलोक या पाताल लोक में ऐसी सुन्दर स्त्री कैसे हो सकती है ? और मृत्युलोक में तो ऐसी स्त्री की बात करना ही व्यर्थ है । मुझे तो ऐसा लगता है कि विधि (ब्रह्मा) ने मुझ पर सन्तुष्ट होकर मेरे लिये ही विशेष प्रयत्न पूर्वक विश्व के श्रेष्ठ से श्रेष्ठ परमाणुओं को ग्रहण कर इस स्त्री का निर्माण किया है । इस स्त्री के साथ कोई पुरुष भी नहीं है और यह स्त्री चपल दृष्टि से मेरी तरफ बार-बार देख रही है, इससे लगता है कि अवश्य ही मेरे लिये ही विधि ने इसका निर्माण कर उसे इस उद्यान में भेजा है। अत: अब मुझे इस कन्या के निकट जाकर इसके नाम आदि एवं चित्त का परीक्षण कर इसे अपना लेना चाहिये । मन में अन्य व्यर्थ के विचार करने से क्या लाभ है ? [४६-५५]
विचक्षण कुमार ने भी वदनकोटर की गुफा में से इस ललित मुख वाली ललना को निकलते देखा था। उसे देखकर महात्मा विचक्षण के मन में विचार आया कि यह परस्त्री है, अकेली है, जंगल में है और सुन्दर भी है। ऐसी स्थिति में परकीया के सन्मुख रागपूर्वक देखना और ऐसे एकान्त में उससे बात करना भी उचित नहीं है । [५६-५७] क्योंकि:
सतः सन्मार्गरक्तानां, व्रतमेतन्महात्मनाम् ।
परस्त्रियं पुरो दृष्टवा, यान्त्यधोमुखदृष्टयः ।।
सन्मार्ग पर चलने वाले सज्जन पुरुषों का यह नियम होता है कि जब कभी वे अपने सामने किसी परस्त्री को देखते हैं तब जमीन की ओर मुख तथा नीची दृष्टि रखकर चले जाते हैं। अतः अब इस स्थान से चले जाना ही अच्छा है, इस विषय में अधिक विचार करना व्यर्थ है। ऐसा विचार कर विचक्षण जड़ कूमार का हाथ खींचकर आगे बढ़ने लगा । विचक्षण कुमार कुछ अधिक बलवान था इसलिये जब वह जड़ कुमार का हाथ खींच कर चलने लगा तब जड़ कुमार को मोह के कारण ऐसा दुःख हुआ मानो किसी ने उसका सर्वस्व हरण कर लिया हो। [५८-६०] दासी का जाल : रसना का परिचय
विचक्षण और जड़ कुमार थोड़ी दूर गये ही थे कि उस सुन्दर स्त्री के साथ जो दासी थी वह दौड़कर उनके पीछे आई [६१] और दूर से ही पुकार-पुकार कर कहने लगी-“बचायो ! मेरे प्रभु ! बचाप्रो !! अरे ! मैं मन्द भाग्यवाली मर रही हूँ, कोई तो मुझे बचायो ।”
___जड़ कुमार ने पीछे मुड़कर देखा और कहा-सुन्दरी ! डरो मत, तू किससे डर रही है ? मुझे बता ।
दासी-आप दोनों मेरी स्वामिनी को * छोड़कर आ गये इसलिये उस
* पृष्ठ ३२८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org