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________________ प्रस्ताव ४ : नरसुन्दरी से लग्न प्राचार्य - राजन् ! मैं उसे यहाँ लेकर नहीं आया हूँ। मेरे गुरुकुल में से तो यह १२ वर्ष पहिले ही मेरा अपमान कर और मुझ से लड़कर निकल गया था। उसके बाद यह वहाँ पाया ही नहीं । आज प्रातःकाल आपकी ओर से अकस्मात् आमन्त्रण आने से मैं आपके पास उपस्थित हुआ हूँ। कुमार मेरे साथ नहीं आया है। वह तो किसी अन्य स्थान से यहाँ पाया है। __नरवाहन- आर्य ! इस कुपात्र-शिरोमणि रिपुदारण में किसी प्रकार के गुणों की नाममात्र की भी योग्यता न होने से आपने उसका त्याग किया, किन्तु गर्भाधान से लेकर आज तक उसको जो कल्याण-परम्परा प्राप्त होती रही इसका क्या कारण है ? और आज ही परीक्षा की घड़ी में लोगों में इसका अपमान होने का प्रसंग आया इसका क्या कारण है ? आचार्य महाराज ! इस कुमार का एक अन्तरंग मित्र पुण्योदय है। आज से पहिले कुमार को जो कुछ भी कल्याण-परम्परा प्राप्त हुई उसका कारण यह पुण्योदय ही था । पुण्योदय के प्रभाव से यह उत्तम कुल में उत्पन्न हुआ, इस पर माता-पिता का अवर्णनीय प्रेम रहा, अनेक प्रकार के सुख, सौभाग्य, धन, ऐश्वर्य और सुन्दर रूप इसे प्राप्त हुप्रा । ये सभी अनुकूलताएं इसे पुण्योदय के प्रभाव से ही प्राप्त हुईं। ____ नरवाहन तब इसका पुण्योदय मित्र अब कहाँ चला गया ? प्राचार्य - वह कहीं भी नहीं गया, अभी भी कुमार में ही गुप्त रूप से रहता है। परन्तु जब से उसने रिपुदारण के दुष्चरित्र और निन्द्य व्यवहार को देखना प्रारम्भ किया है तब से उसके मन में अतिशय ग्लानि उत्पन्न हुई है। इसी से चिन्ता के कारण बेचारा तपस्वी क्षीण शरीर हो गया है । कुमार पर जो-जो आपत्तियाँ पा रही हैं उनका सर्वथा निवारण करने में अब वह इस दुर्बल शरीर से पहिले जैसा समर्थ नहीं रहा । नरवाहन-अरे ! तब तो इस विषय में अब कुछ भी उपाय शेष नहीं रहा । इस दुष्ट पुत्र ने तो मेरी सब लोगों के समक्ष बड़ी भारी हँसी करवा दी। लोकापवाद जैसे चन्द्र को राह ने ग्रस लिया हो वैसे ही मेरे पिताजी का मुंह काला पड़ गया । अतः पिताजी और प्राचार्य के बीच जो कर्णगत वार्तालाप हो रहा था उसका अनुमान लोगों ने लगा लिया । परिणाम स्वरूप मेरे पिताजी, सम्बन्धी, मंत्रीगण और परिजनों का मुख लज्जा से लटक गया। नगर के हँसोड़े लोग परस्पर हँस रहे थे और मुझ पर व्यंग कसे जा रहे थे । बेचारी नरसुन्दरी तो इस घटना से से विस्मित और खिन्न हुई और नरकेसरी राजा तथा उसके साथ आये हुए सम्बन्धी और मंत्रो बहत ही आश्चर्यान्वित हुए, भौंचक्के हो गये । नगर के लोग पिताजी सुन न सके इस प्रकार धीरे-धीरे बातें करने लगे-'अरे ! * यह रिपदारण अभिमान में * पृष्ठ ३१२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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