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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
राजकुमार रिपुदारण की कला-कौशल में नरसुन्दरी के साथ परीक्षा थोड़े ही समय बाद जनता के समक्ष होगी, यह समाचार लोगों में बहुत तेजी से फैल गया । प्रशस्त शुभ दिन देखकर इस कार्य के लिये स्वयंवर मण्डप की रचना की गई । वहाँ लोगों के बैठने के लिये मंच बनाया गया । उस दिन उस स्वयंवर मण्डप में सभी राज्याधिकारी, सम्बन्धी और प्रजाजन एकत्रित हुए । मेरे पिताजी भी अपने परिवार सहित वहाँ आकर बैठे। फिर वहाँ पर कलाचार्य को और मुझे भी बुलाया गया। मैं अपने तीनों अन्तरंग मित्रों पुण्योदय, शैलराज और मृषावाद के साथ (तीनों गुप्त थे) पिताजी के पास आकर बैठा । महामति कलाचार्य भी अपने विद्यार्थी राजकुमारों के साथ आकर मण्डप में यथास्थान विराजमान हुए।।
मेरे दुर्भाग्य से मेरा मित्र पुण्योदय मेरे दुष्ट व्यवहार से क्षभित और खिन्न हो शरीर से सूख गया था, दुबला हो गया था, उसकी स्फूर्ति कम हो गई थी और वह मन्द प्रताप वाला हो गया था।
स्वयंवर मण्डप में मैं एक अोर अपने पिताजी के पास बैठा था तो उनके दूसरी तरफ कलाचार्य बैठे हुए थे। मेरे पिताजी ने कलाचार्य को नरकेसरी राजा के सिद्धार्थपुर पाने का कारण बताया जिसे सुनकर मुझे तो अपने मन में अत्यधिक प्रसन्नता हुई । आचार्य अपने मन में किंचित् हँसे । वे समझ गये कि अब यहाँ रिपुदारण की पोल अवश्य खुल जायगी, पर, मुह से उन्होंने कुछ भी नहीं कहा और वे चुप बैठे रहे। स्वयंवर मण्डप में नरसुन्दरी
हमारे आने के बाद नरकेसरी राजा भी मण्डप में आ पहुँचे। योग्य सन्मान पूर्वक महा मूल्यवान सिंहासन पर उनको बिठाया गया। उनका परिवार भी यथास्थान बैठ गया। तदनन्तर अपने लावण्यामृत-प्रवाह से मनुष्यों के हृदय-सरोवर को पूरित करती, काले लम्बे स्निग्ध और घघराले केश-पाश से सुन्दर मयूर के पंख कलाप को भी तिरस्कृत करती, मुख-चन्द्र से चारों दिशाओं को उद्भासित करती, लीलापूर्वक प्रक्षेपित विलासपूर्ण कटाक्षों से कामीजनों के चित्त को कम्पित एवं भ्रमित करती, अपने पयोधरों की शोभाभार से हाथो के कुम्भस्थलों का विभ्रम उत्पन्न करती, विस्तृत जांघों से कामदेव रूपी हाथी को मदमस्त करती, दोनों पांवों से चलते हुए रक्त कमल के युग्म की लीला को विडम्बित करती, कामदेव के पालापों को मधुर वाणी से बोलती हुई कोयल की कुहु-कुहु कूक को भी पराजित करती और सुन्दर वेश, आभूषण, माला, तांबूल, अंगराग आदि विन्यासों से सुसज्जित होने से बड़े-बड़े ऋषि मुनियों के मन में भी कौतूहल पैदा करती हुई नरसुन्दरी अपनी प्रिय सखियों से घिरी हुई अपनी माता वसुन्धरा के साथ मण्डप में प्रविष्ट हुई। नरसुन्दरी पर व्यामोह
अद्भुत रूप, कान्ति, लावण्य और तेज से परिपूर्ण नरसुन्दरी को देखते हो मैं अपने मन में हृष्ट हुआ। मेरे मित्र अष्टमुख शैलराज ने भी उस समय मुझे
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