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________________ ४२६ उपमिति भव-प्रपंच कथा मृषावाद की प्रशंसा तदनन्तर अपने पिताजी के पास से बाहर निकलकर मैंने मेरे मित्र मृषावाद से कहा - 'मित्र ! तू तो बहुत शक्तिशाली है । तुझ में किसके उपदेश से से इतनी चतुराई श्रा गई है कि तेरे प्रताप से मैं अपने पिताजी को इतना अधिक आनन्दित कर सका । कलाचार्य के साथ मेरी लड़ाई हुई है, इस बात को छुपा लिया और उनके कोप से बाल-बाल बच गया । श्राज तो मुझे अति दुर्लभ सफलता प्राप्त हो गई ।' माया का कुटुम्ब उत्तर में मृषावाद ने कहा - 'मित्र कुमार ! सुन, राजसचित्त नगर में रागकेसरी नामक राजा राज्य करता है। उसकी पटरानी का नाम मूढता है । उसके एक माया नामक पुत्री है, जिसे मैं अपनी बड़ो बहिन के रूप में मानता हूँ और माया भी मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय मानती है । मेरी इस बहिन के उपदेश से ही मुझ में इतनी कुशलता भाई है । यद्यपि मैंने उसे अपनी बड़ी बहिन बनाया है, पर उसका मुझ पर माता के समान स्नेह है, इसलिये जहाँ-जहाँ मैं जाता हूँ वहाँवहाँ वह भी वात्सल्य के कारण अन्तर्लीन ( प्रच्छन्न) होकर मेरे साथ रहती है, एक क्षरण के लिये भी मुझे अकेला नहीं छोड़ती ।' माया की बात सुनकर मैंने अपने मित्र से कहा – 'अरे भाई ! कभी अपनी बहिन के मुझे भी दर्शन कराना ।' मृषावाद ने मेरा प्रस्ताव स्वीकार किया । दुर्गुणों में वृद्धि इसके पश्चात् तो मैं वेश्यालयों में, जुप्राखानों में तथा बुरी इच्छाओंों की पूर्ति करने वाले अन्य अन्य दुष्ट चेष्टा वाले प्रथम स्थानों में, सज्जन पुरुष जिन स्थानों को दूर से ही नमस्कार करें ऐसे तुच्छ स्थानों में अपनी इच्छानुसार भटकने लगा । फिर भी मैं अपने मित्र मृषावाद के बल पर लोगों में ऐसी बात फैलाता रहा कि मैं अपना सारा समय अभ्यास करने में ही व्यतीत कर रहा हूँ और मैं मात्र ऐसे मार्ग का ही अनुसरण कर रहा हूँ जिससे मुझ में गुणों की वृद्धि हो रही है । पिताजी ने अभ्यास में विघ्न न हो एतदर्थ मुझे मिलने आने के लिये भो मना कर दिया था, इसलिये अब उन्हें मुँह दिखाने की भी मुझे श्रावश्यकता नहीं थीं । इसी प्रकार मैंने बारह वर्ष व्यतीत किये। इस बीच मैंने मुग्ध (भोले) लोगों के बीच यह बात फैला दी कि मैं ( रिपुदारण) समस्त कलाओं में पारंगत बन गया हूँ। मेरी ऐसी प्रसिद्धि मैंने देश में ही नहीं देशान्तरों में भी चारों तरफ फैला दी । अनुक्रम से मैंने युवावस्था के मध्य काल में प्रवेश किया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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