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________________ प्रस्ताव ४ : मृषावाद ४२३ महामति प्राचार्य ने विचार किया कि, अहो ! देखो, मैंने स्वयं इसे मेरे आसन पर बैठते देखा है फिर भी यह अपना दोष स्वीकार नहीं करता और उल्टा मुझे ही झूठा बना रहा है । अहो इसकी धृष्टता ! अब इसे सुधारने का कोई उपाय नहीं है । अब तो इसकी असत्य बोलने की सीमा ही टूट गई। फिर मेरे सह विद्यार्थी राजकुमारों ने कलाचार्य को एकान्त में बुलाकर कहा -- प्राचार्यप्रवर ! यह पापी, अभिमानी, असत्यवादी, रिपुदारण इतना अधिक पतित हो चुका है कि इसका मुँह भी नहीं देखना चाहिए । तब फिर ऐसे पतित विद्यार्थी को प्राप हमारे साथ क्यों रखते हैं ? आचार्य ने विचार किया कि ये तपस्वी राजपुत्र जो कुछ कह रहे हैं वह यथातथ्य है । रिपुदारण इतना अधिक पतित हो चुका है कि अब वह सज्जन पुरुषों की संगति के योग्य भी नहीं रहा । कहा भी है: --- संसार में भिन्न-भिन्न दुर्गुणों के वशीभूत प्राणियों को सुधारने के लिये बुद्धिमानों ने विभिन्न मार्ग अपनाये हैं । जैसे, लोभो को धन की प्राप्ति करवाने से, क्रोधी के समक्ष मधुर वचन बोलने से, कपटी के प्रति स्पष्ट विश्वास प्रकट करने से, अभिमानी के समक्ष नम्रता का व्यवहार करने से, चोर के विरुद्ध रक्षा के उपाय करने से और परस्त्री-गामी को सुबुद्धि प्रदान करने से वह सुधर सकता है । किन्तु झूठ बोलने वाले को सुधारने का तो एक भी उपाय संसार में कहीं दिखाई नहीं देता । [१-२] अतः ऐसे व्यक्ति को तो कालदष्ट ही कहते हैं अर्थात् उसको यम के द्वार पर खड़ा हुआ ही समझना चाहिये। क्योंकि, इस दुनिया में शुभ-अशुभ, अच्छे-बुरे जितने भी व्यवहार हैं वे सब सत्य में ही प्रतिष्ठित हैं, अर्थात् उन सब का आधार सत्य ही है । जिसमें सत्य नहीं वह इस संसार से पृथक् और विलक्षण ही है । इसीलिये व्ववहार कुशल बुद्धिमान मनुष्यों को सत्य सर्वदा अत्यधिक प्रिय लगता है । जो अधम प्राणी सत्यरहित होता है उसे वे सदा प्रयत्न पूर्वक अपने से दूर ही रखते हैं । रिपुदारण में सत्य का लवलेश भी नहीं है, अतः सज्जन पुरुषों के विशुद्ध व्यवहार के बीच इसका रहना किसी भी प्रकार से योग्य नहीं है । [३-२ ] अथवा परमार्थ दृष्टि से देखें तो इस बेचारे रिपुदारण का इसमें कोई दोष नहीं है । यह तो अपने अधम मित्र शैलराज की प्रेरणा से ऐसे दुर्विनय के कार्य करता है और अपने दूसरे मित्र मृषावाद से प्रोत्साहित होकर झूठ बोलता है । इसलिये मुझे इसे कुछ ऐसी शिक्षा देनी चाहिये कि जिससे यह इन दोनों प्रधम मित्रों की संगति को छोड़ दे । I गुरुकुल से निष्कासन उपरोक्त विचार के अनुसार एक दिन महामति कलाचार्य ने मुझे शिक्षा देने के लिये बुलाया और अपनी गोद में बिठाकर मुझे प्रेम पूर्वक समझाने लगे'कुमार ! मेरे गुरुकुल में तुम्हारे जैसे अथवा शैलराज और मृषावाद जैसों के लिये कोई स्थान नहीं है । अतः तू किसी भी प्रकार या तो इन दोनों पापी मित्रों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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