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________________ ४२२ उपमिति-भव-प्रपंच कथा लोग जाकर अपनो सात पीढियों को पढ़ाते रहो।' मेरा ऐसा अयुक्त और कर्कश उत्तर सुनकर वे चुप होकर बैठ गये । मैं बहुत देर तक शिक्षा गुरु के आसन पर बैठा रहा, इच्छानुसार चेष्टायें करता रहा और पश्चात् उस आसन से नीचे उतरा। थोड़ी देर बाद हमारे कलाचार्य लौट आपे । सह विद्यार्थियों ने मेरे द्वारा आचरित सारो घटना कलाचार्य को कह दो, जिसे सुनकर कलाचार्य अपने मन में मुझ पर बहुत क्रोधित हुए और मुझे बुलाकर इस सम्बन्ध में मुझ से स्पष्टीकरण मांगा। उत्तर में असूया पूर्वक अपने अपराध को छिपाते हुए मैंने कहा--'क्या मैं ऐसा कर सकता हूँ ? वाह ! आप में कितना अधिक शास्त्रज्ञान है ! अहो आप तो बहत अच्छी तरह से मनुष्य की परीक्षा कर लेते हैं ! अहो आप बहुत विचार पूर्वक बोल रहे हैं ! धन्य हैं आपकी विमर्श-पटुता और दीर्घदृष्टि को ! जिससे आप ऐसे झूठ बोलने वाले और मुझ पर ईर्ष्या रखने वाले छात्रों की बात को मानकर मुझे दोषी बता रहे हैं ! आपको चालाक छात्रों ने ठगा है।' मेरा ऐसा उत्तर सुनकर कलागुरु मन में अत्यन्त रुष्ट हुए। उन्होंने मन में सोचा कि, 'यद्यपि इसके सहपाठी राजकुमार झूठ बोलने वाले नहीं है और न ऐसा लगता है कि इस प्रसंग पर वे झूठ बोलें । रिपुदारण इन पर दोष लगाकर अपना अपराध छिपा रहा है। अब इसे कभी रंगे हाथों पकड़ कर अच्छी तरह शिक्षित (दण्डित) करना चाहिये जिससे कि इसकी बुद्धि ठिकाने आ जाय ।' ___ उसके पश्चात् एक दिन कलागुरु महामति गुरुकुल में ही कहीं छिपकर बैठ गये और मेरे आचरण पर बराबर ध्यान रखने लगे । यह जानकर कि आचार्य यहाँ नहीं है. मैं मस्तो के साथ शीघ्रता से उनके वेत्रासन पर जाकर बैठ गया ।मैं थोड़ी देर तक उनके आसन पर बैठा ही था कि प्राचार्य अपने गुप्त स्थान से निकल कर मेरे समक्ष प्रा खड़े हुए। जैसे ही मैंने उन्हें देखा तुरन्त उनका आसन छोड़कर खड़ा हो गया। फिर हमारे बीच निम्न प्रश्नोत्तर हुए महामति-कुमार ! अब तेरा क्या उत्तर है ? क्या स्पष्टीकरण है ? रिपुदारण-किस विषय में ? महामति-पहले तुमसे जिस विषय में स्पष्टीकरण मांगा गया था, उसी विषय में। रिपुदारण-पहले आपने मुझ से किस विषय में स्पष्टीकरण मांगा था ? मैं तो नहीं जानता। * महामति-तू मेरे इस वेत्रासन (बेंत की कुर्सी) पर बैठा था या नहीं? रिपुदारण-अरे, अरे ! आप यह क्या कह रहे हैं ? ऐसा क्या कभी हो सकता है ? 'हा पाप शान्त हो' ऐसा कहते हुए मैंने अपने दोनों हाथ से दोनों कानों को ढक लिया और स्पष्ट रूप से कहा-'अरे, मात्सर्य का नाटक तो देखो ! स्वयं प्रकार्य करके मुझ पर आरोप लगा रहे हैं।' * पृष्ठ २०६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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