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________________ ३८० उपमिति-भव-प्रपंच कथा अरिदमन-'भगवन् ! यह पास ही बैठी मदनमंजूषा मेरी पुत्री है। थोड़े दिन पहले इसका सम्बन्ध पद्म राजा के कुमार नन्दिवर्धन से करने के लिये मैंने स्फूटवचन नामक मंत्री को जयस्थल भेजा था। उसे गये बहुत समय हो गया परन्तु वह वापस नहीं आया तब उसका पता लगाने मैंने यहाँ से कुछ लोग जयस्थल की भोर भेजे । * वे लोग कुछ दिन बाद वापस आये और उन्होंने कहा-देव ! जयस्थल नगर तो जल कर भस्म हो गया है। जला हुआ स्थान मात्र शेष रह गया है। उस नगर के निकट के अनेक ग्राम और शहर भी जल चुके हैं। अतएव जयस्थल और उसके पास के ग्राम-नगरों का नाम निशान भी नहीं है । वह देश तो अब जंगल जैसा लग रहा है । पता लगाने गये मेरे लोगों को वहाँ एक भी मनुष्य ऐसा नहीं मिला कि जिससे यह मालूम हो कि यह सब कैसे घटित हमा? मैंने सोचा कि, अहो! बड़े दुःख की बात है, किस कारण से यह अघटित घटना हो गई ? क्या वहाँ अचानक ही उल्कापात हो गया ? क्या अंगारों की वर्षा हो गई ? अथवा पहले से कुपित किसी क्रोधी देवता ने नगर को जला कर भस्म कर दिया ? या किसी तपस्वी ने क्रोध में आकर शाप देकर नगर को जला दिया है या दावाग्नि से जल गया ? अथवा चोरों ने जला दिया ? इस घटना का वास्तविक कारण ज्ञात न होने से मेरे मन में सन्देह उत्पन्न हुआ । इस सन्देह का निराकरण न होने के कारण से बहुत दिनों से मैं संतप्त हूँ और ऊहापोह करता रहता हूँ। अब आपश्री के दर्शन होने से आज मेरे सब शोक-सन्ताप नाश को प्राप्त हुए हैं, पर मेरे मन का सन्देह अभी तक नहीं मिटा है, अब आप मेरा सन्देह दूर करने की कृपा करें। प्राचार्य- राजन् ! इस सभा के निकट ही एक पुरुष बैठा है जिसके हाथ पीछे से बन्धे हुए हैं, मुंह में भी कपड़ा ठूसा हुआ है और जो कुछ झुका हुआ भी है, उसे आप देख रहे हैं न ? अरिदमन-हाँ, भगवन् ! इस पुरुष को मैं देख रहा हूँ। प्राचार्य-राजन् ! इसी ने जयस्थल नगर को जलाकर राख कर दिया है। अरिदमन-भगवन् ! यदि इसी पुरुष ने जयस्थल नगर को जलाया है तो यह कौन है ? आचार्य-राजन् ! जिसे तुम अपना जंवाई बना रहे थे, यह वही कुमार नन्दिवर्धन है। अरिदमन- भगवन् ! आप यह क्या कह रहे हैं ? क्या नन्दिवर्धन ने स्वयं यह दुष्कर्म किया है ? इसने ऐसा क्यों किया? फिर यह ऐसी दुरवस्था को कैसे प्राप्त हुआ ? * पृष्ठ २८३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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