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________________ प्रस्ताव ३ : वैश्वानर और हिंसा के प्रभाव में ३६६ इसी समय पुण्योदय ने विचार किया 'अब मेरा समय पूरा हो गया । भवितव्यता की आज्ञा से अभी तक तो मैं यहाँ रहा और उसकी प्राज्ञा का पालन किया, परन्तु अब तो कुमार नन्दिवर्धन थोड़ा भी मेरे सम्पर्क | सम्बन्ध योग्य नहीं रहा, अतः अब यहाँ से चले जाना ही मेरे लिये श्रेयस्कर है।' ऐसा विचार करते हुए मेरा सच्चा मित्र पुण्योदय मेरे पास से चला गया। नन्दिवर्धन द्वारा कुटुम्ब का संहार आवेश में आकर सभाजनों के हाहाकार की अपेक्षा न करते हुए, कर्त्तव्यअकर्तव्य की उपेक्षा करते हए सभाजनों के समक्ष मैंने तलवार के एक ही झटके में स्फुटवचन के शरीर के दो टुकड़े कर दिये। उस समय मेरे पिताजी ने सिंहासन से खड़े होकर पुकारा--'हे पुत्र ! हे पुत्र!! तूने यह क्या गहित अकार्य कर दिया? यह तू ने बहुत बुरा किया।' ऐसा कहते हुए वे मेरो तरफ दौड़ते हुए आने लगे। पिताजी को मेरी तरफ आते देखकर मैंने सोचा कि 'यह भी दुरात्मा हो गये हैं, इसीलिये ये मेरे कार्य को अनुचित एवं गहित बता रहे हैं । यदि वे उसके पक्षपाती नहीं होते तो मेरे काम को बुरा क्यों बताते ?' ऐसा सोचकर नंगी तलवार हाथ में लिये हुए मैं भी उनकी तरफ दौड़ा। मेरे अभिषेक के लिये उपस्थित अनेक राज्यपुरुषों और नागरिकों में भारी कोलाहल और भगदड़ मच गई । मैं भी अपना पुत्रधर्म भूल गया कि पद्म राजा मेरे पिता हैं, वे मुझ पर कितना स्नेह करते हैं, इस बात को भी मैं भूल गया कि उनका मुझ पर कितना उपकार है । मैं जो अकार्य करने पर तुला हूँ उससे मुझे भविष्य में महापापों के उद्भव से कितना दुःख उठाना पड़ेगा, इसका भी मैंने विचार नहीं किया। उस समय मैं वैश्वानर और हिंसादेवी के इतना वशीभूत हो गया कि क्रोध से आगबबूला होकर, पिताजी कुछ कह रहे थे उसे सुने बिना ही चण्डाल की भांति तलवार के एक ही झटके से उनका भी मस्तक धड़ से अलग कर दिया। 'हे पुत्र ! हे पुत्र !! ऐसा दुःसाहस न कर ! दुःसाहस न कर !! अरे लोगों ! बचायो !! बचाओ !!!' उच्च और करुण स्वर में पुकार करती मेरी माता ने मेरे हाथ से तलवार छुड़ाने के लिये शीघ्रता से आकर मेरा हाथ पकड़ा । उस समय मेरे मन में विचार आया कि 'मेरे शत्रु को मारने में तत्पर मुझ पर ऐसे मूर्खता पूर्ण उलटे सीधे प्रारोप लगाने वालो मेरी माता भी पापिनी है और मेरी दुःश्मन हो है ।' ऐसे दुःसाहस पूर्ण विचार आते ही मैंने तलवार के एक झटके से मेरी माता के शरीर के भी दो टुकड़े कर दिये। । उसी समय मेरा भाई शीलवर्धन जिसके साथ मेरी साली मणिमंजरी का लग्न हुआ था वह और मेरी पत्नी रत्नीवती मुझे कहने लगे-'हे भाई ! हे कुमार !! हे आर्य !!! यह तुम क्या कर रहे हो ?' मुझे अकार्य से रोकने के लिये वे तीनों एक साथ आकर मुझे पकड़ने लगे। मैंने सोचा कि 'ये सभी पापी इकट्ठे होकर एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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