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________________ २६६ उपमिति-भव-प्रपंच कथा _ नमेत्तिक-मैंने पहले ही बताया था कि इस शुभपरिणाम राजा को इससे श्रेष्ठ कर्मपरिणाम राजा ही अनुकूल कर सकता है, अन्य कोई यह काम नहीं कर सकता । क्योंकि, यह शुभपरिणाम राजा कर्मपरिणाम राजा के अधीन है। अधिक क्या कहूँ ? देखिये, बात ऐसी है कि जब इस कर्मपरिणाम महानरेन्द्र की कुमार पर कृपा होगी तभी उसके अधोनस्थ शुभपरिणाम राजा स्वयंमेव ही अपनी पुत्री दयाकुमारी का लग्न अपने हाथ से कुमार के साथ करेगा। इस विषय में चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं है । पुनश्च, कुमार की भव्यता को ध्यान में रखकर, निमित्त के बल पर और युक्ति के योग से मैं इतना कह सकता हूँ कि भविष्य में किसी समय कुमार पर कर्मपरिणाम राजा की कृपा होगी, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है। जब ऐसा समय आयगा तब राजा अपनी बड़ी बहिन लोकस्थिति को पूछेगा, अपनी स्त्री कालपरिणति से विचार करेगा, अपने मुख्य सचिव स्वभाव से कहेगा, कुमार के भीतर समग्र भवों में गुप्त रूप से रहने वाली इसकी अन्तरंग पत्नी भवितव्यता को सूचित करेगा तब नियति और यहच्छा आदि यह बतायेंगी कि कुमार में कितना वीर्य है ? इस प्रकार सब को पूछकर, सब से परामर्श लेकर, सब के सन्मुख महाराज कर्मपरिणाम सिद्धान्त रूप से निर्णय करेंगे कि कुमार दयाकुमारी के योग्य हना या नहीं ? इस निर्णय के बाद ही वह दयाकुमारी का लग्न करवायेगा इसमें कुछ भी सन्देह नहीं, अतः आप व्याकुलता का त्याग करें। मौन रहने का परामर्श पद्म राजा-तब अभी हमें क्या करना चाहिये ? नैमेत्तिक- मौन धारण करें और कुमार के प्रति उपेक्षा भाव रखें। पद्म राजा-आर्य ! आपका कहना ठीक है, किन्तु क्या अपने पुत्र के प्रति कभी उपेक्षा रखी जा सकती है ? क्या वह रह भी सकती है भला? नैमेत्तिक-तब आप और कर भी क्या सकते हैं ? कुमार को जो उपद्रव सम्प्रति हैं, यदि वह बाह्म (स्थूल) प्रदेश पर होता तो हम उसका स्पर्श कर सकते, हम उसे पकड़ सकते । यदि किसी बाहर के प्राणी की तरफ से उसे दुःखित किया जाता तब तो आप उसके प्रति उपेक्षा न करते तो ठीक ही कहा जाता । परन्तु, यह तो अन्तरंग का उपद्रव है, अतः इस विषय में यदि आप उपेक्षा रखेंगे तब भो कोई उपालम्भ नहीं रहेगा, आपका अपयश नहीं होगा। पद्म राजा–आर्य ! जैसी आपकी प्राज्ञा। पश्चात् राजा ने जिनमतज्ञ नैमेत्तिक का सत्कार कर उसे विदा किया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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