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________________ उपमिति-भव-प्रपंच कथा कुमारी की ऐसी स्थिति हो रही है। यह बात सुनकर मैंने विचार किया कि यदि शीघ्र ही इसक कोई उपाय नहीं ढूढा गया तो शोकाकुल होकर कुमारी अपने प्राण दे देगी । इस भावि अनिष्ट की कल्पना से शोकविह्वल होकर मैं चीखने चिल्लाने लगो, जिसे सुनकर कुमारी की माता मलयमंजरी वहाँ पहुँच गई । 'कपिजला ! यह क्या है ?' यह क्या है ? कहकर पूछने लगी। मलयमंजरी ने भी जब कनकमंजरी की ऐसी चित्रलिखित सी दशा देखी तो वह भी विलाप करने लगी। चीख-पुकार सुनकर माँ के प्रति ममता जागत होने से और विनय-सम्पन्ना होने से कुमारो को तनिक चेतना आई, शरीर को किचित् मरोड़ा और उबासी लेने लगी । फिर मलयमंजरी ने कुमारी को अपनी गोद में बिठाकर पूछा - 'कनकमंजरी तुझे क्या हा है ? तेरे शरीर में क्या कोई पीड़ा है ?' कुमारी ने कहा-'माताजी ! मुझे कुछ भी पता नहीं, केवल मेरे शरीर में दाह-ज्वर की पीड़ा है।' हम सब व्याकुल होकर उसके शरीर पर मलय चन्दन का लेप करने लगे, कपूर के जल से सिक्त ताड़पत्र के ठण्डे पंखे से हवा करने लगे, शरीर पर शीतल जल को ठण्डी पट्टी रखने लगे, पुन -पुनः पान के बीड़े में कपूर डालकर उसे खिलाने लगे और शरीर को शान्ति प्रदान करने वाले अन्य अनेक प्रकार के उपाय करने लगे। उस समय सूर्य अस्त हो गया, रात्रि का प्रसार हुआ. निशापति चन्द्र का उदय हुआ और आकाश में चारों और निर्मल चांदनी छिटक गई। उस वक्त मैंने माता मलयमजरी से कहा - 'स्वामिनी ! यह स्थान बद होने से यहाँ गर्मी अधिक है कुमारी को कुछ खुले हवा वाले स्थान में ले जाने से ठीक रहेगा ।' रानी की आज्ञा प्राप्त कर हिमालय पर्वत की विशाल शिला के भ्रम को पैदा करने वाली विशाल राजभवन की छत पर जो अमृत जैसी सफेद चांदनी के शीतल प्रकाश से सुशोभित थी, हाथ का सहारा देकर कनकमंजरी को ले गये और कमलपत्र की अतिशीतल शय्या तैयार करवाई एव उस पर उसे सुलाकर उसके दोनों हाथों पर कमल की नाल बांधी तथा सिन्दुवार के पुष्पों का हार पहनाया । उसे ठण्डक पहुँचाने के लिये ऐसी ठण्डी मणियाँ उसके पास रखी गई कि जिन्हें पानी में रखने से तालाब का पानी भी ठंडा हो जाय । वस्तुत: इस प्रदेश में स्वतः ही इतना शीतल पवन निरन्तर बहता रहता था कि बलवान लोगों को भी रोमांच हो आये और सर्दी से दांत कटकटाने लगे। ऐसी सुन्दर शीतल छत पर लाकर रानी ने कुमारी से पूछा - 'पुत्रि कनकमंजरो ! ॐ तुझे जो दाह-ज्वर से वेदना हो रही थी वह अब तो दूर हुई होगी ?' कनकमंजरी ने कहा- माताजी ! अभी तो तक नहीं मिटी । प्रत्युत मुझे तो ऐसा लग रहा है कि पहलेल ! एअनन्त गुणी जलन बढ़ गई है। आकाश में लटकता चन्द्रमा जलते हुए अंगारोंसफा ढेर और अंगारों की ज्वाला मेरी ओर फेंक रहा हो ऐसा लग रहा है । चन्द्रिका ज्वाला समूह जैसी लग रही है । आकाश * पृष्ठ २५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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