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________________ प्रस्ताव ३ : कनकमंजरी ३४५ पीड़ित है । उसकी काम-पीड़ा परमार्थ से मेरी ही पीड़ा है । इसीलिये मैंने कहा था कि मैं कामदेव से भयभीत हो रही हूँ। कपिजला द्वारा कथित कनकमंजरी की विरह स्थिति को सुनकर मैं (नन्दिवर्धन) एकाएक खड़ा हो गया, म्यान में से तलवार निकालकर बोलने लगा'अरे ! खूनी कामदेव ! मेरी प्यारी कनकमंजरी का पल्ला छोड़ दे । जरा पुरुषार्थ धारण कर । हे दुरात्मा ! याद रख ! अब तू एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकता।' ऐसा कहते हुए हड़बड़ा कर पलंग से उठकर मैं तलवार घुमाने लगा । मुझे शान्त करते हुए तेतलि कहने लगा-'कुमार ! इतना आवेश क्यों कर रहे हैं ? जब तक आप जैसे सदय देव विद्यमान ह तब तक कनकमंजरी को कामदेव तो क्या किसी अन्य से भी लेशमात्र भय नहीं हो सकता । इसके बाद क्या हुआ वह तो आप पूरा सुनिये ।' तेतलि के वचन सुनकर मैं शान्त हुआ । मेरी चेतना लौटी और मैं शून्य मन से पलंग पर बैठ गया। फिर उसके और कपिजला के बीच आगे जो बातचीत हुई थी तेतलि उसे सुनाने लगा। तेतलि-कपिजला! कामदेव किस लिये कनकमंजरी पर इतना प्रभाव दिखा रहा है ? कपिजला तेतलि ! सुन, कल वाली विमलानना और रत्नवती के हरण की घटना तो तुझे ज्ञात ही है। फिर महाराज कनकचूड और शत्रु-सेना में घोर युद्ध हुआ और महाराज, कनक शेखर और नन्दिवर्धन की विजय हुई । जब वे विजय पताका फहराते हुए नगर में प्रवेश कर रहे थे तब मुझे भी उन्हें देखने का कुतूहल हुना और मैं भी बाजार में जाकर खड़ी हो गई । जब उनका नगर में प्रवेश महोत्सव हो रहा था तभी मैं कनकमंजरी के महल की ऊपरी मंजिल पर गई । वहाँ जाकर मैंने देखा कि कनकमंजरी झरोखे में खड़ी है, उसका मुह राजमार्ग की तरफ है और दृष्टि एक-टक । उसको दृष्टि अपलक होने से और अंगोपांगों में हलन-चलन न होने से वह चित्र-लिखित संगमरमरी मूर्ति या योगरत योगिनी जैसी लग रही थी। कनकमंजरी की ऐसी विचित्र स्थिति को देखकर हाय ! अकस्मात इसे क्या हो गया है ?' ऐसा विचार करते हुए मैंने उसे 'अरे पुत्रि कनकमंजरो !' कहते हुए बार-बार पुकारा, पर कुमारी ने मुझ मन्दभाग्या को कोई उत्तर नहीं दिया। उस समय वहाँ कन्दलिका नामक एक दासी खड़ी था, उसे मैंने पूछा, 'भद्रे कन्दलिका ! पूत्रो* कनकमंजरी की किस कारण से ऐसी अवस्था हो गई ?' तब कन्दलिका ने कहा - 'मांजी ! मुझे तो कुछ भी पता नहीं लगता । केवल जब कुमार नन्दिवर्धन का रथ राजमार्ग पर जा रहा था तब कुमारी ने उन् र बहुत हर्षित हुई, मानो महामूल्यवान रत्नों की प्राप्ति हुई हो ! मानो शरत का सिंचन हुमा हो ! मानो कोई.अभ्युदयकारी महान फल को प्राप्ति हुई है. प्रकार वर्णनातीत रस में मग्न मने इन्हें देखा था। जब कुमार का रथ दृष्टिपथ से दर आगे चला गया तभी से * पृष्ठ २५८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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