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२४. कनकमञ्जरी
सुम लोगों के राजा जयवर्मा की पुत्री देवी मलयमंजरी महाराजा कनकचूड की प्रिय रानी थी। इस रानी से महाराजा को कामदेव की पत्नी रति जैसी एक सुन्दर कनकमंजरी नाम की पुत्री हुई थी जो सौन्दर्य का मन्दिर हो ऐसी प्रतीत होतो थी। [१६-१० दृष्टि-मिलन
मेरा रथ जैसे ही राजमहल के निकट पहुँचा वैसे ही कनकमंजरी महल के एक झरोखे में खड़ी-खड़ी दूर से मुझे देख रही थी और मुझे देखते ही वह कामदेव के बाण से विद्ध हो गई। मैं भी कुतूहल से चारों तरफ देख रहा था। जैसे ही मेरी दृष्टि उस झरोखे की तरफ गई, वह अति मनोज्ञ कन्या मुझे दिखलाई पड़ी। मेरी और कनकमंजरी को दृष्टि परस्पर टकराई और हम दोनों एकटक एक दूसरे को देखते रह गये । बिना अांख झपकाये वह भी एकटक मुझे ही देख रही थी। उसके शरीर में व्याप्त पसोने से, अंगोंपांग में उत्पन्न सरसराहट से और स्पष्ट दिखाई देने वाले रोमांच से यह निश्चित हो गया कि उसके शरीर में कामदेव व्याप्त हो चुका है। [२१-२४] । सारथि को चतुरता
हमारे दृष्टि-मिलन से हमें बहुत प्रसन्नता हुई है। हमारे इन मनोभावों को मेरा चतुर सारथि तेतलि तुरन्त समझ गया । वह सोचने लगा - ओह ! महाराज नन्दिवर्धन और कनकमंजरी का यह दृष्टि-मिलाप तो सचमुच कामदेव और रति के प्रेम जैसा है। पर, इतने लोगों के बीच यदि नन्दिवर्धन अधिक देर तक कनकमंजरी की तरफ एकटक देखता रहेगा तो इससे इनकी तुच्छता प्रकट होगी, लघुता होगी और अपयश होगा। रत्नवती को भी ईर्ष्या हो सकता है, अतः मुझे इस समय उपेक्षा नहीं करनी चाहिये। यह विचार आते ही सारथि ने काकली (टचकारा) करते हुए रथ को एकाएक आगे चला दिया ।
कनकमंजरी के मुखकमल को एकटक देखते हुए मानों मैं उसके लावण्य रूपी अमृत के कीच में फंस गया। मेरी दृष्टि उसके कपोल के रोमांच-कंटक में बिंध गई। मैं कामदेव के बाण की शलाका से कीलित हो गया अथवा उसके सौभाग्य गुणों से अनुस्यूत हो गया । रसपूर्वक उस दृष्टिपात को समाप्त कर बड़ी कठिनाई से मैंने अपनी दृष्टि घुमाई और मैं अपने महल में आ पहुँचा, किन्तु मेरा मन तो कनकमंजरी की मूर्ति में ही अटक गया था।
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