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प्रस्ताव ३ : विभाकर से महायुद्ध
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कनकचूड ने प्रचुर मात्रा में दान देते हुए राजमहल में प्रवेश किया। उनके पीछे बन्धु कनकशेखर ने प्रानन्दातिरेक में मग्न लोगों की हर्षमिश्रित दृष्टि को स्वीकार करते हुए राजमन्दिर में प्रवेश किया। उनके पीछे रत्नवतो के साथ रथ में बैठा हुआ मैं धीरे धीरे अपने महल की तरफ प्रस्थान कर रहा था। उस समय नगर की स्त्रियों के बीच हो रही बातें मेरे कानों में पड़ी । अाज की विजय का श्रेय वे बड़े गर्व के साथ मुझे निम्नांकित शब्दों में दे रहीं थीं:- अहो ! समरसेन और द्रुम जैसे अप्रतिमल्ल राजाओं के सामने लड़ सके ऐसा मल्ल योद्धा इस दुनिया में कोई नहीं, उनको भी जीतने वाला यह राजकुमार नन्दिवर्धन वास्तव में धन्यवाद का पात्र है। धन्य हो इसकी शूरवीरता ! धन्य है इसकी शक्ति, दूसकी कुशलता और धीरता आदि गुणों को ! सचमुच यह नन्दिवर्धन मर्त्यलोक का कोई साधारण पुरुष न होकर दैवी पुरुष है। इसकी पत्नी रत्नवती भी भाग्यशाली है। आज हमने इनको अपनी प्रांखों से देखा, अतः हम भी भाग्यशाली हैं। अथवा ऐसे साहसी, बलवान, पराक्रमी महानुभाव ने यहाँ पधारकर इस नगर को अलंकृत किया है, अतः यह नगर भी भाग्यशाली है। [१-६]
___लोगों में चल रही ऐसी बातों को सुनकर महामोह के वशीभूत मेरे मन में निम्न विचार प्राने लगे-अहा ! मेरे मन को अत्यन्त आनन्द देने, मेरी उन्नति करने, साधारणतः दुर्लभ यश की प्राप्ति करने आदि के सम्बन्ध में मेरे विषय में जो लोक प्रवाद प्रचलित हो रहे हैं, उन सब का श्रेय मेरे हितकारी परम मित्र वैश्वानर को दिया जाना चाहिये, इसमें कुछ भी संदेह नहीं । तथापि मुझे यह भी मानना ही चाहिये कि मेरी प्यारी पत्नी हिंसादेवी ने मेरी तरफ दृष्टिपात कर मुझे प्रेरणा दी, उसी से यह सब प्राप्त हुआ है । धन्य हो मेरी हिंसादेवी के प्रभाव को ! धन्य हो उसकी मुझ पर आसक्ति ! धन्य हो मेरी प्रिया का कल्याणकारी गुण ! और धन्य हो इसकी गुणग्राहकता को ! सच ही मेरे प्रिय मित्र वैश्वानर ने विवाह के पूर्व हिंसा के जिन गुणों का वर्णन किया था वह वैसी ही गुणवती है । अहा अगृहीतसंकेता ! परमार्थतः सच्ची बात तो यह है कि यह सब अनुकूल फल प्राप्त करवाने वाला मेरा गुप्त मित्र पुण्योदय था, किन्तु उस समय मेरा मन पाप से घिरा हा था, इसलिये मेरा सच्चा हितकारी मित्र पुण्योदय है यह तथ्य मेरी समझ में नहीं आया और न मैंने यह जानने का प्रयत्न ही किया। [१०-१६]
मित्र वैश्वानर और प्रिया हिंसा में अत्यन्त आसक्त मैं उपरोक्त विचारों में मग्न, उनके प्रति अधिकाधिक सोचते हुए, बाजार में होते हुए, लोगों के दिलों में होने वाले चमत्कारों को सुनते हुए अपने रथ को राजमहल के निकट ले आया। [१७-१८] * पृष्ठ २५३
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