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प्रस्ताव ३ : विभाकर से महायुद्ध
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वह विभाकर का मामा, बंगदेश का अधिपति राजा द्रुम है । इधर दांयें भाग का सेनापति जो कनकशेखर के सामने खड़ा है, वह विभाकर स्वयं है |
भयंकर युद्ध : विभाकर की पराजय
इस प्रकार विकट पहचान करा ही रहा था कि युद्ध प्रारम्भ हो गया । की वर्षा से दृष्टिपथ ढक गया, दृष्टिपथ अवरुद्ध हो जाने से योद्धा आकुलव्याकुल होने लगे 18 करोड़ों योद्धा हाथियों के कुम्भस्थल को तोड़ने लगे । हाथियों के शरीर, तट का विभ्रम पैदा करने लगे । सज्जित हाथियों के झुण्ड शोभायमान होने लगे। हाथियों के झुण्ड के बीच में फंसे हुए डरपोक लोगों की चीखें सुनाई देने लगीं । उच्च कोलाहल और युद्ध रव से पर्वतों की गुफायें और चारों दिशाएं गूंजने लगीं । सामने से आते हुए विशिष्ट प्रकार के शस्त्रों को रोकने में असमर्थ होने के कारण राजागरण खिन्न होने लगे । राजागरण मदोन्मत्त शत्रु सेना को गाजर मूली की भाँति काटने लगे । आकाश में चलने वाले देवता और विद्याधर जय-जयकार करने लगे । जय की कामना वाले सैकड़ों योद्धाओं से युद्धभूमि सुशोभित होने लगी । सुन्दर एवं चपल हजारों घोड़े मरण को प्राप्त होने लगे । तीरों के समूह की चोटों से रथ टूटने लगे । रथों के टूटने से भयंकर कोलाहल होने लगा । बलवान महायोद्धा गर्जना के साथ सिंहनाद करने लगे और उस समय गाढे लाल रंग के ताजे खून की नदी बहने लगी । [१-४]
" इस प्रकार जब भयंकर युद्ध चल रहा था तभी भीषण अट्टहास की गर्जना के साथ शत्रु की सेना हम पर टूट पड़ी, जिससे हमारी सेना में भगदड़ मच गई। हमारे योद्धाओं को भागते देख शत्रुसेना ने प्रानन्द से जय-जयकार किया, तथापि हम एक कदम भी पीछे नहीं हटे । मैं, कनकचूड और कनकशेखर शत्रु सेना के सेनापतियों द्र म, विभाकर और समरसेन के बिल्कुल निकट पहुँच गये। इसी समय वैश्वानर ने पुनः संकेत किया और मैंने एक और क्रूरचित्त बड़ा खा लिया, फलस्वरूप मेरे परिणाम तीव्र अ. वेश वाले हो गये । उस समय मेरे सामने समरसेन राजा लड़ रहा था । मैंने उसे प्रक्षेपपूर्वक अपने समक्ष बुलाया और उसे ललकारा । तब उसने मुझ पर प्रस्त्रों की वर्षा प्रारम्भ करदी, पर मेरा मित्र पुण्योदय मेरे साथ था इसलिये उसका एक भी अस्त्र मुझ पर असर नहीं कर सका । उसी समय मेरी रानी हिंसादेवी ने मेरी तरफ दृष्टिपात किया जिससे मेरे परिणाम और भाव बहुत ही रौद्र हो गये । शत्रु को तत्क्षण मार डाले ऐसे शक्ति नामक शस्त्र का मैंने प्रयोग किया और समरसेन को घायल कर दिया । फलस्वरूप समरसेन मारा गया, उसके मररण के साथ ही उसकी सेना में भगदड़ मच गई ।
समरसेन की सेना के पीछे हटते ही मैं शीघ्रता से द्रुम की तरफ लपका, वह महाराज कनककूड के साथ युद्ध कर रहा था । उसकी और मुंह कर मैंने आवाज लगाई – 'अरे ! तुझे मारने के लिये पिताजी की क्या आवश्यकता ? सियार और सिंह की लड़ाई समान नहीं कहलाती । तू मेरे सामने श्रा ।' मेरे तिरस्कारपूर्ण वचन
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