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प्रस्ताव ३ : बिभाकर से महायुद्ध वजाई और जय-जयकार करने लगे। अपने सेनापति प्रवरसेन के मारे जाने से डाकुओं की सेना में निराशा फैल गई और युद्ध को बन्द कर सारी सेना मेरी शरण में आ गई । मैंने भी उनकी शरणागति स्वीकार की । युद्ध समाप्त हुना, शांति हुई और सभी डाकों ने मेरी सेवा (नौकरी) स्वीकार की।
उस समय मैंने अपने मन में विचार किया कि, अहो ! हिंसादेवी की शक्ति तो अचिन्त्य प्रकर्ष प्रभाव वाली है । देखिये ना, इसने मेरी तरफ मात्र दृष्टि की जिससे सारा कार्य इतना सरल हो गया और मेरा यश इतना बढ गया कि कनकशेखर ने भी मेरे इन नतन सेवकों का सन्मान किया। पश्चात् हमने विषमकूट पर्वत से पागे प्रयाण किया और अनुक्रम से कुशावर्तपुर पहुँच गये। विमलनना और रत्नवती का लग्न
कनकवूड राजा अपने पुत्र कनकशेखर के वापस लौटने के समाचर सुनकर बहुत प्रसन्न हुए और साथ में मुझे देखकर उन्हें अत्यधिक संतोष हुआ। अपने प्रानन्द को प्रकट करने के लिये राजा ने महोत्सव किया जिसमें अपने सम्बन्धियों का योग्य सन्मान किया।
विमलानना और रत्नवती के विवाह के लिये शुभ दिन निश्चित किया गया। उस दिन लग्न के योग्य सब क्रियाएं पूर्ण की गई, बड़े-बड़े दान दिये गये, आगन्तुक लोगों का योग्य सन्मान किया गया, विभिन्न कुलाचार किये गये पूजनीय सज्जन पुरुषों की योग्य सेवा की गई। सारे शहर में खाने, पीने, गानेबजाने और प्रानन्द मनाने की प्रवृतियाँ चल रही थी। ऐसे प्रानन्दोत्सव के बीच विमलानना का कनकशेखर से पोर मेरा रत्नवतो से विवाह सम्पन्न हुआ।
२३. विभाकर से महायुध्द राजकन्याओं का अपहरण
विवाह कार्य सम्पन्न हुअा। आनन्द ही आनन्द में तीन दिन बीत गये। विमलानना और रत्नवती ने पहले कुशावर्तपुर नहीं देखा था। यह प्रदेश अत्यधिक रमणीय और आकर्षक था, अतः जवानी की तरंग में और नवीन देखने के कुतूहल से विमलानना और रत्नवती अपने अनुचरों के साथ घूमने चली गई। इन दोनों ने अपने व्यवहार से हमें आश्वस्त कर रखा था, अतः हम से अनुमति लिये बिना ही वे गई थीं। उन्होंने कई नये स्थान देखे जिससे उन्हें बहुत आनन्द आया। अन्त में वे घूमते-घूमते 8 चूतचुचुक (आम्रकुज) नामक उद्यान में आई और उसमें प्रवेश कर क्रीडा करने लगी। उस समय मैं और कनकशेखर राज्यसभा में बैठे थे कि इतने में
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