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उपमिति-भव-प्रपंच कथा नहीं है । कुमार ! जैसे सूर्य अपने करों (किरणों) से संसार के तत्त्व को खींचकर, अपने तेज से भूमण्डल पर व्याप्त होकर सबसे ऊपर रहता है, वैसे ही सूर्य के समान राजा भी कर द्वारा जगत के तत्त्व को खींचकर, अपने प्रताप से पृथ्वी तल पर व्याप्त होकर लोगों का सिरमौर बनता है । जो राजा साधारण लोगों के अधीन हो जाता है, उसका कैसा राज्य ? ऐसे निर्बल राजा की आज्ञा को कौन मानेगा ? न्याय भी कैसे मिलेगा ? जब राज्य की तरफ से दण्ड का भय चला जाता है तब लोग निरंकुश हो जाते हैं और अपनो इच्छानुसार बुरे मार्ग पर प्रवृत्ति करने लगते हैं । जो राजा कर और दण्ड द्वारा पहले से ही प्रजा को अनुशासन में नहीं रख सकता वह राज्य का सचालन नहीं कर सकता, अतः वास्तव में वह धर्म का नाश कर रहा है ऐसा ही समझना चाहिये । कुमार ! आपने अभी जो नीति अपना रखी है उससे राजधर्म की हानि होती है, अतएव वास्तविकता को सोच समझकर आप जैसे को निरर्थक स्वधर्मी वात्सल्य दिखाना उचित नहीं है । [४६-५.] कनकशेखर की नोति
दुर्मुख के ऐसे निकृष्ट विचार सुनकर मेरा मन क्रोध से विह्वल हो गया। फिर भी अपने क्रोध को छिपाकर मैंने उसे शांति से कहा --- आर्य ! यदि मैं किसी दुष्ट या नीच व्यक्ति का पूजा-सन्मान कर रहा हूँ तब तो आपका कथन उचित है, पर जिन लोगों के गुण इतने अधिक वृद्धि को प्राप्त हुए है कि जिससे वे देवताओं द्वारा भी पूजनीय बने हैं, उन्हें दान-मान और सन्मान देने के सम्बन्ध में ऐसे वचन बोलना उचित नहीं है । कारण यह है कि जैनेन्द्र मत का अनुसरण करने वाले लोग तो स्वभाव से ही चोरी, परस्त्री-गमन आदि सभी दुष्ट प्रवृत्तियों से बचे रहते हैं। जो बिना कहे ही सन्मार्ग पर चलते हैं. ऐसे महात्मा पुरुषों को दण्ड किस कारण से दिया जाय ? जिसकी बुद्धि में ऐसे सत्पुरुषों को दण्ड देने के विचार उठते हैं, वास्तव में तो वे ही दण्ड के योग्य हैं। जिन प्राणियों का रक्षण करने की आवश्यकता हो, जिनकी सार सम्भाल आवश्यक हो, उनसे कर लिया जाय तो वह उचित है. पर जिनधर्मी तो अपने गुणों से स्वयं ही रक्षित हैं, अत: उन पर कर का बोझ लादना उचित नहीं है । ऐसे लोगों की तो स्वयं राजा और राज्य को सेवा करना चाहिये, और मैं वही कर रहा हूँ। त्रैलोक्य के नाथ श्री तीर्थंकर भगवान् के जो सेवक हैं वे तो वास्तव में राजा ही हैं, और सब तो उनके सेवक हैं । अतः मैंने किस राजनीति का उल्लंघन किया है कि जिससे तुम्हें इतने कठोर शब्द कहने पड़े ? मेरे धर्मवात्सल्य के कार्य को मिथ्या और व्यर्थ बताकर तो तुमने सचमुच अपना दुर्मुख नाम सार्थक कर दिया है। [५२-६१] दुर्मुख का प्रपंच जाल
मेरा उत्तर सुनकर दुर्मुख मेरा अभिप्राय समझ गया अतः उसने अपने मन में विचार किया कि, कुमार के मन में अहंद् दर्शन के प्रति प्रगाढ अनुराग है । है पृष्ठ २४०
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