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प्रस्ताव ३ : दुर्मुख और कनकशेखर श्रावक मेरे गुरु हैं।' उसके पश्चात तीर्थंकर महाराज के शासन के प्रति भक्ति-भाव प्रकट करने वाले को देखकर मेरी आँखे आनन्दाश्रु से भर जाती और मैं उनकी कई प्रकार से स्तुति करने लगता। जैन धर्म पालन करने वाले सज्जनों के साथ यात्रा करने में, स्नात्र महोत्सव करने में और बड़े-बड़े दान देने में मुझे अतिशय प्रमोद होने लगा। जो मौनीन्द्रमत में नवदीक्षित होते उनकी मैं भावना पूर्वक विशेष सेवा-पूजा करने लगा। मुझे धर्म-तत्पर देखकर अन्य लोग भी अधिकाधिक धर्मपरायण होने लगे। कहावत भी है कि 'जैसा राजा वैसो प्रजा' राजा के जैसी ही प्रजा भी बन जाती है। [२२-३५] दुर्मुख मन्त्री की दुरभिसन्धि
अपनी बात आगे चलाते हए कनकशेखर नन्दिवर्धन से कहता है कि 'मुझे इस प्रकार जैन शासन के प्रति विशेष रूप से अनुरागी देखकर दुर्मुख नामक एक मन्त्री मुझ से द्वोष करने लगा। यह दुरात्मा बहुत ही शठ (नीच) प्रकृति का और दम्भी था। एक दिन उसने पिताजी को एकान्त में लेजाकर कहा--महाराज ! ऐसा लगता है कि इस प्रकार तो राज्य को चलाना अत्यधिक दुष्कर हो जायगा, क्योंकि कुमार ने तो प्रजा को बहुत ही उच्छ खल बना दिया है। जब तक लोगों के सिर पर कर देने का भय होता है तब तक वे अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करते, पर जब उन्हें कर-मुक्त कर दिया जाता है तब वे निरंकुश होकर समस्त अनर्थों के कारण बन जाते हैं। देव ! जैसे उन्मार्ग पर चलने वाला निरंकुश हाथी अंकुश के भय से रास्ते पर आता है वैसे ही निरंकुश लोग दण्ड के भय से रास्ते पर पाते हैं । जब लोग अपनी इच्छानुसार योग्य-अयोग्य प्रवृत्ति करते हैं और आर्य पुरुषों के अयोग्य कार्य कर उद्दण्ड हो जाते हैं तब राजा के प्रताप की हानि होती है और राजा लघुता (हीनता) को प्राप्त होता है । * एक अन्य बात भी है, अभी जो बहुत से लोग जैन धर्मानुयायी बन गये हैं वे कुमार की कर-मुक्ति घोषणा का अनुचित लाभ उठाने के लिये ही जैन बने हैं, विचारवान मनुष्य तो इस प्रकार धर्म परिवर्तन एकाएक नहीं करते। अतः राजन् ! जब लोगों को कर-मुक्ति कर दिया जाता है तो वे इच्छानुसार आचरण करने वाले बन जाते हैं। जब आपकी आज्ञा का कोई पालन न करे तब फिर आप कैसे राजा और कैसा राज्य ? अत: हे देव ! कुमार ने अभी जो असाधारण घोषणा करवाई है वह राजनीति की दृष्टि से मुझे तो ठीक नहीं लगती।' [३६-४४]
दुख की उपरोक्त बात सुनकर पिताजी ने उससे कहा-यदि ऐसा है तो तुम स्वयं कुमार से मिलकर इस विषय में उसे समझा दो, मैं स्वयं तो इस विषय में कुमार को कुछ भी कहने में असमर्थ हूँ [४५] दुर्मुख की राजनीति
पिताजी को आज्ञा लेकर दुर्मुख मेरे पास आया और बोला-कुमार ! आपने जो लोक-प्रशासन की नीति अपना रखी है वह राजनीति की दृष्टि से ऐसी * पृष्ठ २३६
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