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________________ प्रस्तावना २७ इन्हीं जैसे गुणों से, व्यक्ति के क्षणभंगुर जीवन में स्थायित्व और महनीयता समाहित हो पाती है। वाल्मीकि रामायण में, उन समस्त शोभन गुणों का सुन्दर-समन्वय, राम के आदर्श व्यक्तित्व में फलितार्थ किया गया है, जिससे, उनका जीवन, सिर्फ मृत्यु-पर्यन्त तक चलने वाला, साधारण आदमी के जीवन जैसा न रह पाया, वरन्, एक ऐसा चरित बन गया, जिसे आज भी, हर-पल, हर-क्षण जीवन्त बना हुआ अनुभव किया जाता है। महाभारत की सर्जना के मूल में भी, सिर्फ युद्धों की वर्णना करना ही महर्षि व्यास का लक्ष्य नहीं रहा, बल्कि उनका अभिप्राय, भौतिक-जीवन की निस्सारता को प्रकट करके, मोक्ष के लिये प्राणियों में औत्सुक्य जगाना रहा है । इसीलिये, महाभारत का मुख्य-रस 'शान्त' है। वीररस तो उसका अंगीभूत बनकर पाया है। महाभारत, वस्तुतः एक ऐसा धार्मिक ग्रन्थ है, जिससे, आधुनिक जगत् की हर-श्रेणी का व्यक्ति, अपना जीवन सुधारने की शिक्षा-सामग्री प्राप्त कर सकता है। कर्म, ज्ञान और भक्ति की सरस्वती प्रवाहित करने वाली भगवद्गीता तो आज के आध्यात्मिक जगत् का उत्कृष्ट कीर्तिस्तम्भ है। महाभारत की इन्हीं सब विलक्षण विशेषताओं को ध्यान में रखकर, महर्षि व्यास ने, अपना आशय व्यक्त करते समय स्पष्ट किया था---'इस पाख्यान को जाने बिना, जो पुरुष वेदाङ्ग तथा उपनिषदों को जान लेता है, वह व्यक्ति कभी भी अपने को विचक्षण नहीं कहलवा सकता। भारतीय आख्यान साहित्य में, बौद्धधर्म के कथा साहित्य को भी महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । बौद्ध कथानों को समाविष्ट करने वाला 'अवदान' साहित्य, अपना मौलिक अस्तित्व रखता है । 'अवदान' का अर्थ होता है—'महनीय कार्य की कहानी' । जिस तरह, पालि साहित्य में, महात्मा बुद्ध के पूर्व-जन्मों के शोभन गुणों का वर्णन 'जातक' में हुआ है, उसी परिपाटी में, संस्कृत में विरचित यह 'अवदान' साहित्य है । इसमें 'अवदान शतक' सबसे प्राचीन संग्रह है। इसमें संकलित कथायें, तथागत बुद्ध के उन शोभन गुणों की वर्णना करती है, जिनके बल पर उन्हें बुद्धत्व की प्राप्ति हुई थी। इसकी कुछ कहानियों में, पापाचरण करने वाले व्यक्तियों को दी जाने वाली यातनाओं की भी विवेचना की गई है। इस संकलन के अंत:साक्ष्यों १. यो विद्याच्चतुरो वेदान् साङ्गोपनिषदो द्विजः । __न चाख्यानमिदं विद्यान्नव स स्याद्विचक्षणः ॥ २. डॉ० कावेल व नील द्वारा सम्पादित-कम्ब्रिज-1896, बौद्ध संस्कृत ग्रन्थमाला (दरभंगा) से प्रकाशित-1962 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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