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________________ २६ उपमिति भव-प्रपंच कथा इसी अवसर पर, उसे यह सारी कथा, वैशम्पायन ने सुनाई थी । वैशम्पायन ने स्वयं, यह कथा महर्षि व्यास से सुनी थी । " इस कथा में, मुख्यकथा के अतिरिक्त अनेकों प्राख्यान, प्रसङ्गवशात् आये हैं । जिनमें, शकुन्तलोपाख्यान, मत्स्योपाख्यान, रामाख्यान, गंगावतरण, ऋष्यशृङ्गकथा, महाराज शिवि और उनके पुत्र उशीनर की, तथा, सावित्र्युपाख्यान और जलोपाख्यान आदि, कुछ ऐसे प्रख्यान हैं, जिन्हें विश्व - साहित्य में एक विशेष गौरव की आँख से देखा / परखा / पढ़ा जाता है । इसी महाभारत में, श्रीकृष्ण का समग्र जीवन-वृत्त, एक हजार श्लोकों में गुम्फित है । इस अंश को 'हरिवंश कथा' भी दिया गया है । भगवद्गीता का कृष्णार्जुन संवाद भी, महत्त्वपूर्ण भाग है । के नाम से स्वतंत्र रूप महाभारत का ही एक रामायण में, महाभारत जैसा, प्राख्यानों का विपुल भण्डार तो नहीं है, फिर, भी, भारतीय काव्य-परम्परा का प्राद्य-ग्रन्थ होने का, इसे गौरव-पूर्ण स्थान प्राप्त है | आदि कवि महर्षि वाल्मीकि ने इसमें जिस रामकथा का वर्णन किया है, उससे, भारत का प्रत्येक आबाल-वृद्ध भलीभाँति परिचित है । रामायण में भी मुख्यकथा के अतिरिक्त अनेकों अवान्तर कथायें जुड़ी हुईं, प्रसङ्गवशात् श्राई हुई हैं। जिनमें, रावण का ब्रह्मा से वरदान पाना, राम के रूप में विष्णु का अवतरित होना, गंगावतरण, विश्वामित्र श्रौर वशिष्ठ का युद्ध आदि आख्यान, संस्कृत साहित्य के उत्कृष्ट एवं गरिमापूर्ण प्राख्यानों के रूप में स्वीकार किये जाते हैं । इन दोनों महाग्रन्थों की भाव-भूमि को आधार मान कर उत्तरवर्ती आख्यान - साहित्य की विस्तृत सर्जनाएं हुई हैं । 'मालती - माधव' और 'मुद्राराक्षस' जैसे कुछ एक कथानकों को छोड़कर, शेष समूचा संस्कृत साहित्य, इन दोनों प्रार्ष काव्यों के प्रभाव से अनछुना नहीं रह पाया । रघुवंश, भट्टिकाव्य, रावरणवहो और जानकीहररण जैसे महाकाव्यों ने रामायण की रसधारा में स्वयं को निमग्न कराया, तो किरातार्जुनीय, शिशुपालवध, और नैषधीयचरित जैसे उत्कृष्ट महाकाव्यों की पृष्ठभूमि में, महाभारत की ऊर्जस्विल भाव-लहरियां तरङ्गित होतीं स्पष्ट देखीं जा सकती हैं । मानवीय जीवन, बालू के घर की तरह, शीघ्र ढह कर गिर जाने वाली वस्तु नहीं है । बल्कि इसमें स्थायित्व है । ऐसा स्थायित्व, जो अपनी भौतिक सत्ता को विनष्ट कर चुकने के बाद भी, अपने बाद की मानव - सन्तति को राह दिखा सकता है । किन्तु, यह तब सम्भव हो पाता है, जब व्यक्ति अपना जीवन उदात्तता, पर- दुःख - कातरता, त्रस्त - पीड़ित - प्रताड़ित मानवता को शरण और सहकार - सम्बल करना, आदि महनीय शोभन गुरणों से प्रापूरित बना लेता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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