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प्रस्ताव ३ : निजविलसित उद्यान का प्रभाव
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कारण मध्यमबुद्धि द्वारा किये गये प्रश्नोत्तर ही थे, अतः इसने भी मुझ पर बहुत उपकार किया है। राजा की मध्यमजन में गणना
सुबुद्धि-देव ! इसका नाम भी गुणानुरूप सार्थक है। लोगों में कहावत है कि 'समान गुण, प्रवृत्ति, सुख और दुःख वालों में ही प्रायः मित्रता होती है।' इसकी प्रवृत्ति मध्यम प्रकार की है अतः यह मध्यम स्थिति के मनुष्यों को आश्वासन दे यह उचित ही है।
राजा ने अपने मन में विचार किया कि, अहा ! मेरे मन में मिथ्याभिमान था कि 'मैं राजा हूँ' इसलिये सब पुरुषों में श्रेष्ठ हूँ, परन्तु इस सुबुद्धि मन्त्री ने युक्ति पूर्वक अर्थापत्ति से मुझे मध्यम श्रणी में ला दिया है । सचमुच मेरे मिथ्याभिमान को धिक्कार है ! ऐसा अभिमान करने वाला मैं भी धिक्कार का पात्र हूँ, अथवा जब वस्तुस्थिति ही ऐसी है तब मुझे विषाद नहीं करना चाहिये ।
विशालकाय हाथी वहीं तक शूरवीर और त्रासदायक दिखाई देता है जब तक कि विकराल दाढों वाला सिंह उसे दिखाई नहीं देता। सिंह की गन्ध आते हो वह भयभीत होकर थर-थर कांपने लगता है। अतः मनोषी की अपेक्षा से तो मेरी मध्यम-रूपता योग्य ही है । यह महाभाग्यशाली मनीषी तो वास्तव में सिंह ही है, उसके समक्ष मेरे जैसे हाथियों को डर लगे तो इसमें क्या आश्चर्य ! इसकी तुलना में तो मैं डरपोक हाथी के समान ही हूँ। * अतः मुझे खिन्नमन नहीं होना चाहिये; क्योंकि मेरे जैसे व्यक्तियों के लिये तो मध्यमश्रेणी में गिना जाना भी बड़े भाग्य की बात है । मध्यमवर्ग का अशक्त प्राणी यदि कभी अपना कार्य सफल कर ले तो वह सर्वोत्तम हो सकता है पर जघन्य तो कभी सर्वोत्तम हो ही नहीं सकता। पहले मेरे मन में केवल सर्वोत्तम होने का एक ही मिथ्याभिमान नहीं था अपितु अन्य कई मिथ्याभिमान भी थे, पर अब उनकी चिन्ता करना व्यर्थ है। [१-६] धर्मानुष्ठान में निमित्त की उपकारिता
राजा उपरोक्त विचार कर रहा था तभी सूबुद्धि मन्त्री बोला-देव ! आपका यह विचार अत्युत्तम है कि यह हमारा उपकारी है; क्योंकि जिन धर्म के अनुष्ठान की प्रवृत्ति में यदि कोई किचित् मात्र भी निमित्त बने तो उसके जैसा उपकारी इस संसार में अन्य कोई भी प्राणी नहीं है । निजविलसित उद्यान का प्रभाव-स्मरण
__ शत्रमर्दन--सचमुच ही तेरा कहना यथार्थ है । अब दूसरी बात सुनो। मेरे मन में बार-बार एक विचार आ रहा है । आचार्यश्री के उपदेश का स्मरण
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