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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
सुबुद्धि - भगवन् ! आपने पहले जो गृहस्थ-धर्म बताया वह इस प्रकार की शक्ति उत्पन्न कर सकता है या नहीं ?
प्राचार्य-परम्परा से गृहस्थ-धर्म भी इस प्रकार का वीर्य उत्पन्न करने का कारण बन सकता है, परन्तु प्रत्यक्ष कारण नहीं बन सकता; क्योंकि गृहस्थ-धर्म मध्यम वर्ग के प्राणियों के योग्य है । इस धर्म को भली प्रकार पालन करने से मध्यम वर्ग का प्राणी शनैः शनैः उत्कृष्ट वर्ग में आ जाता है और परम्परा से वह उत्कृष्टतम भी बन सकता है । अत: गृहस्थाश्रम को परम्परा से उत्कृष्टतम बनने का कारण माना गया है । * वैसे समस्त प्रकार के क्लेशों का नाश करने वाली और सरलता पूर्वक संसार का विच्छेद करने वाली तो पवित्रतम भागवती दीक्षा ही है, जो कि अतिदुर्लभ है। किन्तु मन्त्रीश्वर ! गृहस्थाश्रम भी संसार को बहुत कुछ संक्षिप्त कर सकता है, अतः इस संसार समुद्र में उसे भी अति दुर्लभ समझना चाहिये । कहने का तात्पर्य यह है कि भागवती दीक्षा प्राणी को अतिशय वीर्य द्वारा उसी भव में उत्कृष्टतम श्रेणी में ले जाती है, जब कि गृहस्थाश्रम में वह स्थिति धीरे-धीरे अनेक भवों में प्राप्त होती है।
यह सुनकर मध्यमबुद्धि सोचने लगा कि अभी तो मुझे तीर्थंकर महाराज द्वारा प्ररूपित गृहस्थ-धर्म का ही भली प्रकार अनुष्ठान करना चाहिये।
१३. बाल के अधमाचरण पर विचार
प्राचार्यश्री के उपदेशामृतसरिता-प्रवाह के समय बाल अकुशलमाला और स्पर्शन के शरीराधिष्ठित होने से उसने उपदेश का एक अक्षर भी ध्यान देकर नहीं सुना । उसकी चित्तवृत्ति अधिकाधिक अस्थिर/चंचल होती गई और उसके मन में अनेक प्रकार के संकल्प-विकल्प होने लगे। वह तो रानी मदनकन्दली को अपलक दृष्टि से देख रहा था, और सोच रहा था, अहा ! कैसा सुन्दर मनोहर रूप है ! कैसा सौकुमार्य है ! ऐसा लगता है मदनकन्दली रानी भी मेरी ओर आकृष्ट है, उसकी मेरे प्रति आसक्ति निश्चित ही दिखाई दे रही है क्योंकि वह बार-बार तिरछी नजर से मेरी तरफ देख रही है। सचमुच इस गौरांगना के कोमल अंगों के स्पर्शजन्य सुखामृत-सेचन के अनुभव से अब मेरा जन्म सफल होगा ऐसा मुझे आभास हो रहा है । इस प्रकार वितर्क-परम्परा के जाल में प्राकुलित चित्त वाला बाल अपने प्रात्मस्वरूप को खो बैठा, शेष व्यापारों से शून्य हो गया और उसके मन में भी किसी प्रकार से मदनकन्दली के साथ विषय-सुख भोगने की उत्कट इच्छा जाग्रत हुई।
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