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________________ प्रस्ताव ३ : प्रबोधनरति प्राचार्य २६७ शुभसुन्दरी ने कहा-बहुत अच्छा, आर्य पुत्र ! आप जो कह रहे हैं वह बहुत सुन्दर है । मेरे मन में भी यही था कि मनीषो आपकी विशेष कृपा के योग्य है । आपको आज्ञानुसार मैं प्रयास करूंगी। उद्यान में तीनों भाई ऐसा कहकर शुभसुन्दरी ने अपनी योग-शक्ति प्रकट की और अन्तर्ध्यान होकर सूक्ष्मरूप से मनीषी के शरीर में प्रविष्ट हो गई। मनीषी का मन अत्यधिक प्रमुदित हा, सम्पूर्ण शरीर अमृत सिंचन से सराबोर हो गया, उसे निजविलसित उद्यान में जाने की इच्छा हई और उस तरफ जाने के लिये वह निकल पड़ा। फिर उसके मन में विचार पाया कि, यहाँ अकेला कैसे जाऊं? मध्यमबुद्धि को घर में रहते काफी समय बीत गया है, अब तो लोग बाल की बात भी भूल गये हैं, अतः बाहर निकलने में लज्जित होने का अब कोई कारण नहीं है, तब उसे भी अपने साथ उद्यान में क्यों न ले जाऊं ? * इस विचार से मनीषी मध्यमबुद्धि के पास पाया और अपना विचार उसे सुनाया। इधर कर्मविलास राजा ने अपनी स्त्री सामान्यरूपा को उत्साहित किया कि उसे भी अपने पुत्र को उसके कर्म का फल प्राप्त करवाना चाहिये । सामान्यरूपा रानी मध्यमबुद्धि की माता थी। वह अकुशलमाला और शुभसुन्दरी से शक्ति में कुछ कमजोर थी और चित्रविचित्र फल देने वाली थी। वह भी मध्यमवृद्धि के शरीर में सूक्ष्म रूप से प्रविष्ट हई और उसकी प्रेरणा से मध्यमबुद्धि की भो निजविलसित उद्यान में जाने की इच्छा हुई । मध्धमबूद्धि ने बाल को भी उद्यान में साथ चलने को कहा, जिससे अनमना-सा वह भी उद्यान में जाने को तैयार हुआ। इस प्रकार बाल, मनीषी और मध्यमबुद्धि तीनों ही निजविलसित उद्यान में गये । जिन मन्दिर और प्राचार्य के दर्शन कुतूहल से नाना प्रकार के विलास करते हए वे तीनों निजविल सिता उद्यान में स्थित प्रमोदशिखर जिन मन्दिर में पहुँच गये। वह देव मन्दिर मेरु पर्वत के समान उन्नत (बहुत ऊँचा) था, साधुओं के हृदय की तरह विशाल था और सौन्दर्य तथा औदार्य के योग से वह देवलोक को भी लज्जित करने वाला था। युगादिदेव श्री आदीश्वर भगवान की मूर्ति उस मन्दिर में विराजमान थी। इस मन्दिर के चारों तरफ उच्च विशाल किला गढ (परकोटा) बना हुअा था । लोकनायक आदीश्वर भगवान् की मधुर स्वर से स्तुति करते और स्तोत्र बोलते हुए श्रावकों की कर्णप्रिय ध्वनि को सुनकर 'यहाँ क्या है !' जानने के कौतुक से तीनों कुमार जिनेश्वर देव के मन्दिर में प्रविष्ट हुए। उन्होंने वहाँ महा भाग्यवान्, शान्त, धीर प्रबोधनरति प्राचार्य महाराज को देखा । वे दक्षिण दिशा में विराजमान थे, देव भवन के प्रांगन * पृष्ठ १६७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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