SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 379
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११. प्रबोधनरति आचार्य एकदा नगर के बाहर स्थित निजविलसित नामक उद्यान में प्रबोधनरति नामक प्राचार्य पधारे । गन्धहस्ती के साथ जैसे अनेक छोटे-बड़े हाथी रहते हैं वैसे ही प्राचार्य अनेक अतिशय गुणवान् छोटे-बड़े शिष्य परिवार से परिवृत थे, जो करुणा-रस के प्रवाह (भण्डार), संसार समुद्र को पार करने के लिये सेतु, तृष्णालता का छेदन करने में परशु, मान पर्वत का विदारण करने में वज्र, उपशम (समता) तरु की जड़, संतोषामृत में सागर, सर्व विद्या-समुद्र में प्रवेश करने के लिये तीर्थ (घाट), विशुद्ध प्राचार का निकेतन, प्रज्ञाचक्र की नाभि, लोभ समुद्र के लिए वाडवाग्नि, क्रोध सर्प के लिये महामंत्र, महामोह के अन्धकार को दूर करने में सूर्य, शास्त्र-रत्नों की परीक्षा करने में कसौटी, रागवन को जलाने में दावानल, नरकद्वार को बन्द रखने के लिये बड़ी अर्गला के समान और शुद्ध मार्ग को बतलाने वाले तथा अतिशय ज्ञान रत्न के भण्डार थे। संक्षेप में कहें तो वे प्राचार्य सर्व गुण-सम्पन्न थे। मनीषी के प्रति कर्मविलास का पक्षपात ___ इधर कर्मविलास राजा को जब मालूम हुआ कि मनीषी तो सर्वदा स्पर्शन से विपरीत ही चलता है तब उन्हें उसके प्रति अधिक पक्षपात उत्पन्न हुपा और उसने शुभसुन्दरी से कहा-प्रिये ! तू तो अच्छी तरह जानती है कि अनादि काल से मेरी प्रकृति एक समान चलती आ रही है। जो स्पर्शन के साथ अनुकूल होकर रहते हैं उनके प्रति मुझे प्रतिकूल होना पड़ता है और जो स्पर्शन के प्रतिकूल होकर रहते हैं उनके प्रति मुझे अनुकूल होना पड़ता है। जहाँ में प्रतिकूल प्रवृत्ति करता हूँ वहाँ अकुशलमाला मेरी सहायता करती है और उसी के द्वारा में अपना कार्य करता हूँ, परन्तु जहां मुझे अनुकूल प्रवृत्ति करनी होती है वहाँ तू मेरी सहायता करती है। मेरी ऐसी प्रकृति और प्रवृत्ति होने के कारण बाल स्पर्शन के अनुकूल है इसीलिये अकुशल पाला के सहयोग से मैंने मेरी प्रतिकूलता का थोड़ासा फल उसे चखा दिया, किन्तु यह मनीषी स्पर्शन के प्रतिकूल रहता है तो भी अभी तक मैंने उसे अपनी अनुकूलता का नाममात्र का भी फल नहीं दिया है। मनीषी की स्पर्शन पर आसक्ति न होने पर भी उसे कोमल शय्या, स्त्री-संभोग आदि अनुभवों में अनेक प्रकार का सुख प्राप्त होता है और संसार में उसका सुयश भी फैला है, दुःख की तो गंध भी उसके पास नहीं फटकतो । इस सब का मूलभूत कारण तुम्हारे द्वारा मैं ही हैं, फिर भी जब मेरी उस पर कृपा हुई है तब उसे केवल इतन. हो फल मिले यह तो समुचित नहीं है । उसे अभी तक जो लाभ प्राप्त हुआ है वह तो कुछ भी नहीं है, इसलिये हे प्रिये ! उसे विशेष लाभ प्राप्त करवाने के लिये तू मेरी इच्छानुसार प्रयास कर, क्योंकि वह विशेष लाभ के योग्य है। के पुष्ठ १६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy