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________________ प्रस्तावना यह भी, वर्षा के द्वारा दूतों को आगे खिसका/सरका रहा है। सुनो""कहीं दूर, वह सिंह दहाड़ रहा है । यह शेर, पृथ्वी में (वर्षा का) बीज डाल रहा है । ये, वे वर्षा गीत हैं, जिनमें, एक विलक्षण प्रतिभा प्रस्फुरित हो रही है । इस वर्षा में सांड है, सिंह है, और वह सब कुछ भी है, जिससे हमारा ऐन्द्रियत्व सहल उठता है, फिर स्वयं में, उसे आत्मसात् कर लेता है। एक दूसरे स्थल पर, 'जीमूत' मेघ का उपमान रूप में प्रयोग, वैदिक वाङमय की साहित्यिकता और रूपकता को, एक ऐसी ऊँचाई तक पहुँचा देता है, जिस तक, शायद मेघ स्वयं न पहुंच सके । देखिये---'जब एक वीर योद्धा, कवच से सज-धज करके, रणाङ्गण में उपस्थित होता है, और अपने धनुष से बाणों की वर्षा कर शत्रुदल पर छा जाता है, तब, उसका चेहरा 'जीमूत' जैसा हो जाता है ।2 सामान्य रूप से देखने/पढ़ने पर तो यह उपमान, बड़ा ही बेतुका, किंवा फीका सा लगता है, किन्तु, जब 'जीमूत' शब्द की व्युत्पत्ति समझ में आ जाती है, तब, इस उपमान का चमत्कार, स्वतः ही सामने आ जाता है । 'जीमूत' शब्द बनता है.--ज्या+/ मी (गति) से । अर्थात् ऐसा बादल 'जीमूत' कहा जायेगा, जिसमें बिजली की प्रत्यञ्चा कौंध रही हो । एक सच्चा शूरवीर, जब शत्रुदल पर टूटता है, तब उसका चेहरा 'जीमूत' जैसा ही होता है। क्योंकि, बलपूर्वक पूर्ण श्रम से और धूलि-धूसरित होने के कारण, चेहरा कृष्णवर्ण हो जाता है। साथ ही, शत्रुदल पर धनुष से बारणों की जब वर्षा करता है, तब उसकी लहराती/लपलपाती प्रत्यञ्चा (ज्या), वर्षणशील मेघ में कौंध रही विद्युल्लता जैसी, उस बहादुर वीर के चेहरे के सामने/आस-पास, क्षण-क्षण में कौंधती रहती है। अब, उक्त उपमान से यह स्पष्ट होता है कि वैदिक ऋषि द्वारा प्रयुक्त यह उपमान, न तो फीका है, न ही बेतुका, बल्कि, एक नये रूपक की सर्जना का द्योतक बन गया है । ऋग्वेद का यह प्राञ्जल वर्णन, कितना सजीव है ? इसकी शब्द-गरिमा और उससे ध्वनित अर्थ-गाम्भीर्य कितना विशद है, पेशल है ? इस विषय पर, बहुत १. अच्छा वद तवसं गीभिराभिः स्तुहि पर्जन्यं नमसा विवास । कनिक्रदद् वृषभो जीरदानू रेतो दधात्यौषधीषु गर्भम् ॥ किं वृक्षान् हन्त्युत हन्ति राक्षसान् विश्वं विभाय भुवनं महावधात् । उता नागा ईषते कृष्ण्यावतो यत् पर्जन्यः स्तनयन् हन्ति दुष्कृतः ।। रथीव कशयाश्वां अभिक्षिपन्नाविर्दूतान् कृणुते वर्त्यां प्रह। दूरात् सिंहस्य स्तनथा उदीरते यत् पर्जन्यः पृथिवी रेतसावति ।। -वही ५/८/३/१-३ २. वही ५-७५-१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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