SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 37
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२ उपमिति-भव-प्रपंच कथा इतनी दूर, जहाँ से वह कभी नहीं लौटेगा। तब, वह सो जायेगा मृत्यु की गोद में । और, वहाँ खूख्वार भेड़िये, उसे (आनन्द से) खायेंगे।' पुरुरवा के हताश/निराश स्नेह को प्रकट करने वाले ये शब्द, उर्वशी की स्नेहिलता की कसौटी बन जाते हैं । पुरुरवा के एक-एक शब्द ने, उर्वशी के अंतस् को कचोट डाला। परिणाम, वही होता है, जो आज भी एक सच्चे प्रेमी और रूठी प्रणयिनी की परस्पर नोंक-झोंक का होता है। उर्वशी कहती है2--'यो पुरुरवस् ! मत भाग दूर, अपने प्राण भी व्यर्थ मत गंवा, अमाङ्गलिक भेड़ियों का शिकार मत बन । क्योंकि, स्त्रियों की मैत्री, मैत्री नहीं होती। इनका दिल तो भेड़िये का दिल होता है।' दर असल, उर्वशी का यह उत्तर, समग्र स्त्री जाति के लिये शाश्वत श्रृंगार बन गया। पुरुरवा और उर्वशी के इस परिसंवाद ने, लौकिक जगत के सच्चे प्रेमी, और फुसला ली जाने वाली मानिनी प्रेयसी के स्पष्ट उद्गारों को, रसात्मकता का जैसे शिलालेख बना दिया। इसी संवाद की प्रतिध्वनि शतपथ-ब्राह्मण, विष्णु पुराण, और महाभारत में भी मुखरित हुई है । जिसका अनुगुञ्जन, महाकवि कालिदास के 'विक्रमोर्वशीय' नाटक में, स्पष्ट सुनाई पड़ता है। भारत के मूर्धन्य कवियों ने जी भर कर पर्जन्य की महिमा के गीत गाये हैं। किन्तु, वैदिक कवि ने 'जीमूत' पर्जन्य का गुणगान किया है । यह जीमूत, क्षण भर में ही, जल-थल एक कर देता है। धरती से अम्बर तक, जलधारा का एक वर्तुल सा बना देता है। वेद कहता है-'पायो, आज इन गीतों से उस पर्जन्य को गाग्रो; यदि उसे नमस्कार करके मनाना चाहो, तो पर्जन्य के गीत गायो । देखो, यह महान् साँड गर्ज रहा है। इसके दान में (कितनी) शक्ति है । (अपने इसी दान से) वनस्पतियों में अपने बीज का गर्भाधान कर रहा है वह । “वह देखो, पेड़ों को किस तरह उखाड़ कर फैंके चला जा रहा है ? राक्षसों को किस तरह धराशायी किये चला जा रहा है ? इसका दारुण वज्र देखकर, धरती और आकाश डोल रहे हैं । जब, विद्य तपात करके यह दुराचारियों को धराशायी करता है, तब, निष्पाप लोग भी थरथरा उठते हैं ।"और, जिस तरह, रथी अपने कोड़े से घोड़ों को आगे कुदा देता है, वैसे ही, -वही १०/६५/१४ १. सुदेवो अद्य प्रपतेदनावृत् परावतं परमां गन्तवा उ । प्रधा शयीत निऋतेरुपस्थेऽधैनं वृका रभसासो अद्य : ।। २. पुरुरवो मा मृथा मा प्रपप्तो मा त्वा वृकासो अशिवास उक्षन् । नवै स्त्रणानि सस्यानि सन्ति सालावृकारणां हृदयान्येताः ॥ -~-वही १०/६५/१५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy