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प्रस्ताव ३ : प्रतिबोधकाचार्य
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आदि पर हमने बहुत उपकार किया। अतः हमने जो कालक्षेप किया वह हम दोनों के लिये तो सफल ही हुआ। विचक्षणा ने उत्तर दिया--नाथ ! इस बात में क्या संदेह है ? जो भी कार्य विचार-पूर्वक किया जाता है वह अच्छा ही होता है । [१२-१५] ।
- इसके बाद उस व्यन्तर-दम्पति के परस्पर प्रेम में वृद्धि हुई और वे शुद्ध धर्म की प्राप्ति से आत्मा को कृतार्थ करते हुए प्रानन्द से रहने लगे। [१६] । कथा का निष्कर्ष
__सामान्यरूपा, मध्यमबुद्धि को उपरोक्त कथा द्वारा दो युगलों का दृष्टान्त देकर कहती है--हे पुत्र ! उपरोक्त दृष्टान्त से तू समझ गया होगा कि जब कभी किसी विषय में संदेह पैदा हो जाय तो कालक्षेप करना ही गुणकारक होता है । अतएव ऐसी संदेहास्पद अवस्था में जिसमें कि निर्णय लेना शक्य नहीं है तुम्हें भी कालक्षेप करना चाहिये । पश्चात् इस अवधि में गुणावगुरण का निर्णय करने के बाद जो मार्ग ग्रहण करने योग्य लगे उसे ग्रहण करना। मध्यमबुद्धि ने अपनी माता की आज्ञा को शिरोधार्य किया । अब स्पर्शन पर जो वास्तव में सब का भाव शत्रु है, मनीषी के कहने से मध्यमबुद्धि प्रगाढ प्रीति नहीं रखता । बाल के कहने से कभी-कभी उस पर थोड़ा ऊपरी स्नेह दिखाता रहता है फिर भी स्वयं सर्वदा सचेत रहता है। इस प्रकार मध्यमबुद्धि त्याग और स्नेह के बीच झूलते हुए समय व्यतीत कर रहा है । [१७-२०] ।
८. मदनकन्दली अकुशलमाला को योगशक्ति
बाल ने एक दिन अपनी माता अकुशलमाला से कहा-माताजी! आप अपनी योगशक्ति का बल दिखलाइये । उत्तर में उसने कहा--पुत्र ! तू मेरे सम्मुख खड़ा हो जा, मैं अपनी योगशक्ति का प्रयोग करती हूँ। फिर अकुशलमाला ने ध्यान किया, प्राण-वाषु को रोका और सूक्ष्म परमारणुओं द्वारा बाल के शरीर में प्रवेश किया। इधर स्पर्शन भी हर्ष पूर्वक बाल के शरीर में प्रविष्ट हो गया। दो सूक्ष्म शरीरों के प्रविष्ट होने से बाल को अधिकाधिक कोमल स्पर्शवाली वस्तुओं को प्राप्त करने की अभिलाषा होने लगी जिससे वह बार-बार व्याकुल होने लगा। परिणाम स्वरूप वह दूसरे सब कर्तव्य छोड़कर इसी कार्य में संलग्न हो गया और रात-दिन अनेक स्त्रियों के साथ सुरत-क्रिया आदि भोग भोगने में लीन हो गया। यहाँ तक कि वह मूढात्मा जुलाहे, चमार, डूम, ढेढ आदि नीच जाति की स्त्रियों पर
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