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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
हैं इसी से प्राचार्यश्री के उपदेश से प्रतिबुद्ध होकर दीक्षा लेने को तत्पर हुए हैं। इस संसार समुद्र को पार करना अत्यन्त दुष्कर है, पर इन्होंने तो इस भव समुद्र को पार करने की तैयारी कर ही ली है। यह चारित्र-रत्न ही संसार समुद्र को पार करने का मुख्य साधन है, किंतु हम अत्यन्त भाग्यहीन हैं कि देवयोनि में हमें चारित्र प्राप्त नहीं हो सकता । * फिर भी हमें उत्तम लाभ तो प्राप्त हुआ ही है और वह यह है-मिथ्यात्व को चूर-चूर करने वाला, अनन्त भवों में भी कठिनता से प्राप्त होने वाला सर्वोत्तम सम्यक्त्व जो हमें प्राप्त हुआ है। इतने तो भाग्यशाली हम भो हैं ही, क्योंकि दरिद्री को रत्नों का ढेर कभी नहीं मिलता। ऐसा सोचते हुए वे दोनों व्यन्तर-दम्पति प्राचार्यश्री के चरणों को नमन कर, उनसे प्राज्ञा लेकर अपने स्थान को जाने के लिये निकल पड़े। जैसे हो वे सभा-स्थान से बाहर निकले कि तुरन्त ही भोगतष्णा जो बाहर खड़ी उनकी प्रतीक्षा कर रही थी उन दोनों के शरीर में प्रविष्ट हो गई. पर अब यह व्यन्तर-युगल शुद्ध सम्यक्त्व को प्राप्त कर चका था अतः वह इनको किसी प्रकार की बाधा पहुंचाने में असमर्थ थी। [३-६] व्यन्तर-व्यन्तरी को स्पष्टोक्ति
एक दिन विचक्षणा और कालज्ञ एकान्त में बैठे थे। उस समय विचक्षणा ने पूछा--प्राणनाथ ! जब आपको मालूम हुआ कि मैंने आपको ठगा है
और पर-पुरुष से समागम कर रही हूँ तब आपके मन में मेरे प्रति कैसे विचार हुए होंगे? उत्तर में कालज्ञ ने उस समय मुग्धकुमार को मार डालने के और अन्त में एकाएक ऐसा साहस न कर कुछ विलम्ब से यह कार्य करने के जो विचार आये थे वे सब कह सुनाये। ऐसा विचार-युक्त उत्तर सुनकर विचक्षणा ने कहा-आर्यपुत्र ! आपका नाम कालज्ञ है वह सर्वथा उपयुक्त ही है। [आप अपने नाम के अनुसार समय को पहचानने वाले और उसकी शोध करने वाले हैं, इसमें तनिक भी शंका नहीं हो सकती। उस समय आपने त्वरितता न कर, जो कालक्षेप किया वह अच्छा ही किया। इस प्रकार हम सब जीवित बच गये, आचार्यश्री के दर्शन कर सके, चारों ने दोक्षा ग्रहण की और हमें सम्यक्त्व प्राप्त हुआ, यह सब धैर्य रखने का ही सुफल प्राप्त हुआ है ।] [१०-११]
अब कालज्ञ ने विचक्षणा से पूछा-प्रिये! मुझे परस्त्री के साथ रमण करते देख कर तेरे मन में क्या-क्या विचार उठे थे ? उत्तर में विचक्षणा ने उस समय उसके मन में जो-जो विचार उठे थे वे सब कह सुनाये। तब कालज्ञ ने कहा-सच ही तेरे मन में मेरे प्रति ईर्ष्या होते हुए भी तूने जल्दबाजी न कर, समय निकाला यह तेरो विचक्षणता ही है, तूने भी अपना नाम सार्थक किया है। वल्लभे! हमने जो समय व्यतीत किया तो भोग भी भोगे, प्रीति भी बनी रही और अकाल में विरह भी नहीं भोगना पड़ा, अन्त में हमें धर्म भी प्राप्त हुआ, ऋतु राजा
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