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________________ प्रस्ताव ३ : मध्यमबुद्धि २३५ कालज्ञ व्यन्तर की विचारणा केलिप्रिय होने के कारण कालज्ञ व्यन्तर यह सब लीला देखकर बहुत प्रसन्न हुआ, किन्तु उसके मन में विचार-द्वन्द्व चल रहा था कि यह दूसरी स्त्री कौन है ? जब उसने अपने विभंग-ज्ञान का उपयोग किया तब उसे ज्ञात हुआ कि यह तो स्वयं की स्त्री विचक्षणा ही है । यह जानकर वह मन में क्रोधित हुआ और उसने सोचा कि, 'इस दुराचारी पुरुष मुग्धकुमार को ही मार डालूँ। मैं इस विचक्षणा को देवांगना होने के कारण मार तो नहीं सकता पर इसे इतना दुःख पहुंचाऊँ कि इसके पश्चात् यह कभी पर-पुरुष की गन्ध भी नहीं ले सके ।' ऐसा दृढ निश्चय कालज्ञ व्यन्तर ने किया, परन्तु उसी समय भवितव्यता की प्रेरणा से उसके मन में विचार आया कि मैंने जो सोचा वह ठोक नहीं है. जब मैं स्वयं शुद्ध आचरण का पालन नहीं कर सका तब मुझे विचक्षणा को पीडा पहुँचाने का क्या अधिकार है ? जैसा उसका दोष है वैसा ही मेरा दोष है । मुग्धकुमार का मारना भी योग्य नहीं है, क्योंकि कुमार को मारने पर यदि अकुटिला को कुछ भनक पड़ गई तो वह मेरे से विपरीत हो जाएगी और वह मेरा सेवन नहीं करेगी तथा विचक्षणा भी सर्वदा के लिए मेरे से विरक्त हो जाएगी । तब मैं क्या करूँ ? अपनी स्त्री को चपलवृत्ति को अनदेखा करके अकुटिला को लेकर यहाँ से कहीं दूर चला जाऊं? नहीं, यह भी उचित नहीं। यह सब अस्वाभाविक होगा। यदि अकुटिला को कुछ संदेह हो गया तो वह मेरे साथ आनंद का उपभोग नहीं करेगी और उसके बिना यहाँ से जाना व्यर्थ होगा। अतः दूसरों की ईया न कर, समय निकालना और यहीं रहना मेरे लिये हितकर है । विचक्षरणा के विचार विचक्षणा ने भी यही विचार किया कि, अरे! यह तो मुग्धकुमार का रूप बनाकर मेरे पति कालज्ञ ही आये लगते हैं। उनके सिवाय अन्य कौन इस प्रकार यहाँ आ सकता है ? उनके देखते हुए मैं पर-पुरुष का सेवन किस प्रकार करू ? ऐसे विचार से विचक्षणा के मन में बहुत लज्जा आयो । फिर अपनी आँखों के सामने अपना पति अन्य स्त्री से सम्बन्ध करे यह देखकर उसे भी बहुत ईर्ष्या हुई । ऐसे संयोगों में यहाँ रहना तो दुष्कर है, पर अब यहाँ से चले जाने से भी क्या लाभ होगा? इन विचारों से व्याकुल होते हुए भी उसने सोचा- अब तो यहाँ रहने के अतिरिक्त दूसरा कोई उपाय ही नहीं है। उसे दूसरा कोई रास्ता न सूझने से 'जो होगा देखा जायगा' ऐसा सोचकर मन को धैर्य देती हुई वह भी वहीं पर रह गई। अब उन दोनों ने नये वैक्रिय रूप धारण करने बन्द किये, एक दूसरे पर ईर्ष्या करना छोड़ा, देवमाया से मनुष्यों के सब कर्तव्य निभाते हुए और वे दोनों नवीन रूपों में भोग भोगते हुए लम्बे समय तक इसी स्थिति में वहीं रहे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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