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________________ २३४ उपमिति भव-प्रपंच कथा देखकर कहा – वल्लभे ! सचमुच ही प्राज तो तुमने मुझे जीत लिया, बोलो अब क्या करें ? अकुटिला रूपधारी विचक्षरणा व्यन्तरी ने कहा -जो मैं कहूँ वह आज तो तुम्ह करना ही पड़ेगा । कुमार ने कहा- क्या करना है यह तो बताओ ? व्यन्तरी ने कहा- चलो हम लता - मण्डप से छाये कदलीगृह में चलें और वहाँ जाकर उद्यान की सुन्दरतम विकसित पुष्पावली में ग्रानन्द का उपभोग करें । - केलिगृह में दो युगल मुग्धकुमार ने प्रस्ताव स्वीकार किया और वे उसी कदलीगृह में गये जहाँ कालज्ञ व्यन्तर और प्रकुटिला पहले से ही मौजूद थे । वहाँ उन्होंने एक जाड़े को देखा । अधिक ध्यान से देखने पर उन्हें आश्चर्य हुआ और वे एक दूसरे को एकटक देखने लगे । दोनों युगलों में रंचमात्र भी अन्तर नहीं था, जिस तरफ से भी देखो सब समान था । वास्तविक मुग्धकुमार ने अब विचार किया - अहो ! भगवती वनदेवी के प्रभाव से आज तो मैं और मेरी स्त्री दोनों ने एक समान दो स्वरूप धारण कर लिये हैं । यह तो हमारे महान् उत्कर्ष का कारण बना है । चलो, चलकर पिताजी को यह आनन्ददायक समाचार देवें । उसने दूसरे युगल से भी अपनी इच्छा बतायी, उन्होंने भी स्वीकार किया और चारों व्यक्ति ऋतु राजा के पास आये । राज-परिवार को हर्ष इन एक समान दो युगलों को देखकर राजा आश्चर्यचकित हुआ । प्रगुरणा रानी और राज्य परिवार के अन्य लोगों को भी बहुत विस्मय हुआ । उन्होंने मुग्धकुमार से पूछा – पुत्र ! यह सब कुछ कैसे हुआ ? जरा हमें भी समझाओ । मुग्धकुमार - पिताजी यह तो वन देवता का प्रभाव है । ऋतु राजा - वह कैसे ? तब मुग्धकुमार ने सारा वृत्तान्त कह सुनाया । वृत्तान्त सुनकर सरल प्रकृति वाले ऋतु राजा ने विचार किया कि, 'अहा ! मैं धन्य हूँ, भाग्यशाली हूँ, मुझ पर वन देवता की बड़ी कृपा हुई है ।' हर्ष के उत्साह में असमय में ही उसने पूरे नगर में बड़ा महोत्सव मनाने का आदेश दे दिया । अनेक प्राणियों को बड़े-बड़े दान दिये गये, धूमधाम से नगर देवता का पूजन-अर्चन किया गया। फिर पूरे राज्य - मण्डल को बुलाकर उनके मध्य में राजा ने कहा 'मेरे एक ही पुत्र और एक ही पुत्रवधु थी जिसके स्थान पर अब दो पुत्र और दो पुत्रवधुएं हो गई हैं । अतः हे लोगो ! खूब खाओ, पीओ, गाओ, बजाप्रो, नाचो और आनन्द करो राजा के कथन को ही दोहराती हुई प्रगुरणा रानी ने भी आनन्द मंगल के बाजे बजवाये और प्रसन्नता में हाथ ऊंचे कर-करके नाचने लगी, द्विगुणित आनन्दित हुई । प्रकुटिला भी बहुत प्रमुदित हुई । अन्तःपुर की सभी स्त्रियाँ हर्ष से से नाचने लगीं । इस प्रकार सम्पूर्ण नगर प्रमुदित हुआ और सर्वत्र प्रानन्द छा गया । * पृष्ठ १७२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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