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________________ प्रस्ताव ३ : स्पर्शन-मूलशुद्धि २२६ अवसर की प्रतीक्षा में हूँ; क्योंकि मैंने उसे एक बार मित्र के तौर पर स्वीकार किया है अतः असमय में एकदम छोड़ देना उचित नहीं है।। पुत्र के ऐसे वचन सुनकर शुभसुन्दरी ने कहा-वत्स ! तेरा यह विचार बहुत सुन्दर है। तेरी व्यवहार कुशलता उचित ही है । तेरी वत्सलता, नीतिमार्ग पर प्रवृत्ति की तत्परता, गंभीरता और स्थिरता धन्य है। व्यवहार का एक नियम है जिसे एक समय ग्रहण किया हो, उसमें कुछ दोष होने पर भी सज्जन मनुष्य उसका एकाएक त्याग नहीं करते, जैसा कि तीर्थकर महाराज जब गृहस्थाश्रम में होते हैं तब वे असमय में गृहस्थी का त्याग नहीं करते । [१] एक वार स्वीकार किये हुए व्यक्ति को उसके दोषी होने पर भी असमय में त्याग करने से सज्जन पुरुषों में निन्दा होती है और अपना उद्देश्य भी पूर्ण नहीं होता है। [२] * परन्तु, वैसी दोष वाली वस्तु या व्यक्ति का त्याग करने का उचित अवसर प्राप्त होने पर भी जो प्राणी मूर्खतावश उसका त्याग नहीं करता, तो परिणामस्वरूप उसका स्वयं का भी नाश हो जाता है, इस विषय में तनिक भी शंका नहीं की जा सकती। [३] किसी कारणवश हेय बुद्धि से ग्रहण की गई वस्तु का त्याग करने के लिये विद्वान् पुरुष सुअवसर की प्रतीक्षा करते हैं। ऐसे पुरुष निःसंदेह प्रशंसा के योग्य हैं। [४] कर्मविलास राजा ने जब अपनी दोनों रानियों से सब वृत्तान्त सुना तब वह मन ही मन में मनीषी पर प्रसन्न हुआ और बाल पर रुष्ट हुना। तदनन्तर बाल कोमल शय्याओं पर आराम करने, सुन्दर स्त्रियों के साथ स्पर्शनेन्द्रिय रति-सुख भोगने आदि स्पर्शन की सभी प्रिय वृत्तियों में अधिकाधिक आसक्त होने लगा और अहर्निश उनका ही सेवन करने लगा। बाल ने राजकुमार के योग्य दूसरे सब कार्यों को छोड़ दिया, अपने देव और गुरु को प्रतिदिन नमन करने का जो नियम था उसका भी त्याग कर दिया, कलाभ्यास भी छट गया, कुल-मर्यादा का त्याग करना प्रारम्भ कर दिया और पशु-धर्म को ग्रहण कर लिया। उसकी ऐसी प्रवृत्ति के लिये लोग निन्दा करने लगे तो वह उनकी उपेक्षा करने लगा। अभी तक उसका विचार था कि अपने कुल को कलंक लगे ऐसा कोई कार्य नहीं करना चाहिये, उस विचार का भी त्याग कर दिया। मैं दूसरे प्राणियों के बीच निन्दा और हँसी का पात्र बन रहा हूँ. यह उसकी समझ में ही नहीं पा रहा था। अपना हित करने वाले लोगों के प्रति उपेक्षा दिखाने लगा और सद् उपदेश ग्रहण करना छोड़ दिया। वह केवल जहाँ-तहाँ स्त्री-संग, कोमल * पृष्ठ १६८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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