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________________ २२२ उपमिति-भव-प्रपंच कथा उसके पश्चात् रागकेसरी राजा ने अपने साथ चलने वाले दूसरे समस्त राजाओं को भी समाचार भेज दिये कि पिता श्री महानरेन्द्र महामोह भी साथ चलेंगे। यह बात सुनकर पूरी सेना में उत्साह छा गया। फिर महामोह, रागकेसरी, विषयाभिलाष व अन्य समस्त मंत्रीगण और सामंत सेना के साथ संतोष नामक प्रबल तस्कर पर विजय प्राप्त करने निकल पड़े। इस घटना से पूरा राजसचित्त नगर उद्वेलित हो गया और यह जो कोलाहल सुन रहे हो वह इसी सेना के प्रयाण का कोलाहल है। हे भद्र ! महाराजा और राजा के विजय-यात्रा पर निकलने का यह प्रयोजन है । तुझे यह बात जानने की बहुत उत्सुकता थी इसीलिये मैंने तुझे सब बात कह सुनाई, अन्यथा अतित्वरा के कारण मुझे भी बोलने का समय नहीं था; क्योंकि सेना की प्रथम पंक्ति में नायक के स्थान पर मेरी नियुक्ति हुई है। विपाक का आभार विपाक के मुख से इतना विस्तृत वर्णन सुनकर मैंने उसके प्रति आभार प्रदर्शित करते हुए कहा ---'आर्य ! मैं किन शब्दों में आपका आभार प्रदर्शन करू ? सज्जन पुरुष सर्वदा परोपकार करने में तत्पर रहते हैं। जब ऐसे सज्जन दूसरों का भला करने में व्यस्त होते हैं तब वे अपना स्वयं का काम भी भूल जाते हैं या उसे गौरण कर देते हैं, अपने परिश्रम से उत्पन्न धन का दूसरों के लिये उपयोग करते हैं, दूसरों के लिये अनेक प्रकार के दुख सहन करते हैं, स्वयं को चाहे कितनी विपत्तियाँ सहन करनी पड़े उसकी ओर ध्यान नहीं देते, आवश्यकता पड़ने पर अपना मस्तक कटाने को भी उत्सुक रहते हैं, अपने जीवन को भी संकट में डालने को तत्पर रहते हैं और दूसरों के काम को अन्तःकरण से अपना काम मानकर करते हैं।' मेरे ऐसे वचन सुनकर विपाक मन में प्रसन्न हुआ । मेरे प्रति अपने मस्तक को थोड़ा झुकाया और अपने जाने की सूचना देता हुआ मुझे प्रणाम कर विपाक वहाँ से विदा हुआ। बोध को रिपोर्ट अपनी बात को बोध के समक्ष आगे चलाते हुए प्रभाव बोला-आपने मुझे जो राजकार्य सौंपा था वह लगभग पूर्ण हो चुका है। आपकी आज्ञा थी कि मैं स्पर्शन के मूल का पता लगाकर आपको सूचित करूं । विपाक ने स्पर्शन के जितने गुणों का वर्णन किया है वे अपने स्पर्शन से सब मिलते हैं, इसका मुझे स्वयं को अनूभव हो गया है । विपाक के कथनानुसार स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रवण इन पाँच पुरुषों को सन्तोष को जीतने के लिये भेजा गया था, उन्हीं पाँच में एक स्पर्शन है। इससे उसके मूल का तो पता लग गया पर सन्तोष की बात अभी तक मुझे भी बराबर समझ में नहीं आई। मुझे ऐसा लगता है कि यह सन्तोष तो सदागम का ही कोई सेवक होना चाहिये। अगर ऐसा न हो तो आगे और पीछे की बात में जरूर कुछ विरोध प्राता। वस्तुत: मुझे इतना सोचने की क्या आवश्यकता है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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