SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 329
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपमिति-भव-प्रपंच कथा कहा कि, भद्र ! तुमने स्पर्शन के सम्बन्ध में क्या जानकारी प्राप्त की है ? बतायो। बोध का आदेश प्राप्त कर प्रभाव ने कहा 'जैसी देव की आज्ञा' ऐसा कहकर वह अपनी जानकारी देने लगाराजसचित्त नगर : रागकेसरी राजा मैं यहाँ से निकल कर अलग-अलग बहिरंग (बाह्य) प्रदेशों में गया, पर वहाँ तो मुझे स्पर्शन को मूल प्रवृत्ति के बारे में कुछ भी जानकारी प्राप्त नहीं हुई। फिर मैं अन्तरंग प्रदेश में गया। वहाँ मैंने राजसचित्त नामक नगर देखा । वह नगर जंगली भील लोगों की पल्ली (बस्ती) जैसा दिखाई देता था। उसमें चारों तरफ काम आदि चोर लोग भरे हुए थे। वह पापी लोगों का निवास स्थान, मिथ्याभिमानियों की खान और अकल्याण की परम्परा का साधक था। वह चारों तरफ अन्धकार से घिरा हुआ था और वहाँ प्रकाश की एक किरण भी नहीं थी। इस नगर में रागकेसरी नामक राजा राज्य करता था जो सभी दुष्ट लोगों का सरदार, सब पापजन्य प्रवृत्तियों का कारण, सन्मार्गरूपी पर्वतों के लिये वज्रपात जैसा, इन्द्रादिकों के लिये भी दुर्जेय और अतुलबलशाली था। विषयाभिलाष मन्त्री इस रागकेसरी राजा के विषयाभिलाष नामक मुख्य मन्त्री था। वह राजा के सब कार्यों में पूर्ण सहायक था । सब स्थानों पर उसकी आज्ञा अप्रतिहत होती थी। सम्पूर्ण संसार को अपने वश में करने में वह निपुण था। प्राणियों को मोह में लिप्त करने का उसे विशेष अभ्यास था। पाप-अनीति का कोई कार्य करना हो तो उसे करने में वह चालाक और कुशल था । स्वयं किसी भी कार्य के करने में दूसरों के उपदेश की अपेक्षा नहीं रखता था। अत: राजा ने राज्य का सम्पूर्ण कार्यभार उसे सौंप दिया था। राजसचित्त में कोलाहल __ भ्रमण करता हुआ मैं राजसचित्त नगर के महलों के मध्य चौक में पहुँच गया। उस समय अचानक ही वहाँ बड़ा कोलाहल हो रहा था। उस कोलाहल के साथ ही मिथ्याभिनिवेश आदि कई रथ बाहर निकलते हुए मुझे दिखाई दिये। रथों के आगे भाट लोग योद्धाओं की प्रशंसा में उनके शौर्य का वर्णन कर रहे थे। उन रथों में लौल्य (लोलुप) आदि अनेक राजा बैठे थे । आगे देखा तो अपनी चिंघाड से दिशाओं को गुजाते हुए ममत्व आदि हाथी राजमार्ग पर निकल रहे थे। दूसरी ओर अज्ञान आदि घोड़े अपनी हिनहिनाहट से दिशाओं को बधिर करते हुए चल रहे थे। उनके आगे चापल्य आदि असंख्य पैदल योद्धा हाथों में नाना प्रकार के शस्त्र लिये दौड़ रहे थे। उस समय कामदेव के प्रयाण को सूचित करते हुए ढोल और तासों के शब्द सूनाई देने लगे । क्षणमात्र में ही मानों झंझावात से प्रेरित बादल घुमड़ आये हों, वैसे ही विलास रूपी ध्वजारों से व्याप्त और विब्बोक रूपी शंख एवं रणभेरियों की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy