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________________ ४. स्पर्शन-मूलशुदि उस दिन से बाल का स्पर्शन के साथ स्नेह सम्बन्ध बढ़ने लगा। मनीषी तो आश्चर्य चकित होकर सब कुछ देखता रहता है, पर वह स्पर्शन का किसी प्रकार विश्वास नहीं करता। स्पर्शन भी दोनों राजकुमारों के पास ही रहता, पूरे समय वह अन्दर-बाहर उनके आगे-पीछे लगा रहता, दोनों राजकुमारों के साथ विविध स्थानों पर घूमता रहता और अनेक प्रकार की क्रीडाएँ करता रहता। मनीषी के विचार : निर्णय एक समय मनीषी ने अपने मन में विचार किया कि स्पर्शन के प्रसंग से भी जब चित्त स्थिर नहीं रहता तब फिर इसके साथ विचरण करने वाले का मन भटके और सुख प्राप्त न हो तो क्या आश्चर्य ? इसका वास्तविक रूप क्या है ? कैसा है ? यह भी अभी तक समझ में नहीं आया। जब तक इस विषय का रहस्य समझ में नहीं आता तब तक इसका भी निर्णय नहीं हो सकता कि इसके साथ परिचय बढाया जाय अथवा नहीं ? अत: अभी तो यह आवश्यक है कि इसका वास्तविक मूल कहाँ है ? इसका पता लगाया जाय और इसके सम्बन्ध में समग्र वास्तविकता की छान-बीन की जाय । उसके पश्चात् जैसा उचित हो वैसा आचरण किया जाय । ऐसा मनीषी ने निर्णय किया। बोध को जांच के आदेश : प्रभाव की नियुक्ति मनीषी ने स्पर्शन के बारे में पता लगाने के लिये अपने बोध नामक अंगरक्षक को एकांत में बुलाकर कहा-भद्र ! मुझे इस स्पर्शन पर अत्यन्त अविश्वास है, अतः तुम इस बात का पता लगायो कि यह कौन है ? कहाँ से आया है ? इसके सम्बन्धी कौन हैं ? आदि बातों से मुझे सूचित करो। बोध ने कहा-'जैसी राजकुमार की आज्ञा' और वह वहाँ से निकल पड़ा । * बोध के पास प्रभाव नामक एक योग्य व्यक्ति था जो दूत का कार्य कर सकता था। प्रभाव ने देश-विदेश की अनेक भाषाओं का अध्ययन किया था। अनेक प्रकार के वेष धारण करने में वह कुशल था। अपने स्वामी का कार्य करने के लिये मन-प्राण से जुट जाने वाला था। अपने काम को बराबर समझने वाला और किसी की पकड़ में न आने वाला एक चतर व्यक्ति था। बोध ने प्रभाव को अपने पास बुलाया और उसे स्पर्शन के बारे में सब पता लगाने को कहा । फिर प्रभाव ने स्पर्शन का पता लगाने के लिये अनेक देशों में कुछ समय तक घूमकर कई बातों की सूचना एकत्रित की । एक दिन वह वापस बोध के पास आया और प्रणाम कर भूमि पर बैठ गया । बोध ने भी यथोचित सत्कार कर * पृष्ठ १५८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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