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________________ प्रस्ताव ३ : नन्दिवर्धन और वैश्वानर १६५ फिर भी जैसे नागदमनी औषधि से सर्प हतप्रभ हो जाते हैं वैसे ही मेरी गंधमात्र से अपनी स्वतन्त्र चेष्टा को त्याग कर उद्विग्न मन से भय से कांपते हुए, जेल में पड़े हए कैदियों की तरह महादुःख से अपने माता-पिता की आज्ञा का पालन करने के लिये वहाँ शिक्षण लेते हुए अपना समय व्यतीत कर रहे थे। मेरे से वे इतने भयभीत थे कि ये सब घटनाएँ कलाचार्य को कहने का साहस भी नहीं कर पाते थे, क्योंकि उनको भय रहता कि ऐसा करने से उन सब का नाश होगा । सर्वदा सन्निकट रहने के कारण कलाचार्य मेरी समस्त उच्छखल चेष्टानों को जानते ही थे और मेरी अनुशासन-हीनता का अन्य विद्यार्थियों पर क्या प्रभाव पड़ रहा है इसे जानकर भी वे मुझे दण्ड देने का साहस नहीं कर पाते थे, क्योंकि वे स्वयं भी मन में मेरे से भयभीत थे । यदि किसी बहाने से कभी वे मुझे कुछ कहने का प्रयास भी करते तो मैं उनका भी तिरस्कार करता, इतना ही नहीं कभी तो उन्हें मार भी देता । इसके बाद तो अन्य राजकुमारों की तरह वे भी मेरे से दूर ही रहने लगे। __इन सब घटनाओं पर विचार करते हुए महामोह के वशीभूत मैं सोचने लगा-'अहो ! मेरे परम मित्र वैश्वानर का प्रताप और माहात्म्य ! अहो इसका हितकारीपन ! * अहो इसका कौशल ! अहो इसका वात्सल्य भाव ! और मुझ पर उसका प्रेम पूर्ण दृढ़ अनुराग ! जब वह मुझ से प्रेम पूर्वक मिलता है तो मेरा पराक्रम बढ़ जाता है जिससे सर्वत्र राजा की भांति मेरा एक छत्र शासन चलता है । (यह सब मेरे मित्र वैश्वानर का ही प्रताप है। वह मुझे एक क्षण भी नहीं छोड़ता अतः वह मेरा सच्चा भाई, मेरा शरीर (अंग). मेरा सर्वस्व, जीवन और परम तत्त्व है। इस वैश्वानर के बिना पुरुष कुछ भी नहीं कर सकता, वह मांस का पुतला मात्र रह जाता है। ऐसे विचारों से मेरा वैश्वानर पर दृढ़ अनुराग अधिकाधिक बढ़ता गया। वैश्वानर में अनुरक्त नन्दिवर्धन __एक बार मैं और वैश्वानर एकान्त में बैठे हुए वार्तालाप कर रहे थे, उस समय मैंने विश्वस्त होकर कहा - श्रेष्ठ मित्र ! मुझे कुछ अधिक कहने की तो आवश्यकता नहीं है, मात्र इतना बता देना चाहता हूँ कि मेरे प्राण तेरे अधीन हैं और तुझे अपनी इच्छानुसार उन्हें प्रयुक्त करना है। इस प्रकार मेरी बात सुनकर वैश्वानर ने सोचा कि चलो अपना परिश्रम तो सफल हुआ, क्योंकि यह अब पूर्णरूपेण मेरे वश में हो गया है। ऐसा विचार कर वैश्वानर मुझ पर अधिक प्रेम दिखाने लगा । परस्पर प्रेम में अनुरक्त प्राणी एक दूसरे का कहा हुना सुनते हैं, किसी भी प्रकार के संकल्प-विकल्प बिना उसे ग्रहण करते हैं, उस पर अन्तरंग से व्यवहार करते हैं और जो काम करने को कहा गया हो उसको तुरन्त पूर्ण करते हैं । अतएव अब उचित समय आ गया है यह जानकर * पृष्ठ १४३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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