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उपमिति भव-प्रपंच कथा
मुझे उत्साहित करता है, मेरे बल को जागृत करता है, मेरे तेज को बढाता है, मन को स्थिर करता है, धैर्य उत्पन्न करता है और मेरे बडप्पन को जागृत करता है । संक्षेप में कहूँ तो पुरुष के योग्य सभी गुणों का वैश्वानर मुझ में नियोजन करता है । ऐसे विचारों से वैश्वानर पर मेरी प्रीति बढने लगी और वह मेरा परम मित्र
बन गया ।
कलाभ्यास
क्रमशः बढता हुआ जब मैं आठ वर्ष का हुआ तब मेरे पिता पद्मराजा ने मुझे शिक्षा प्रदान करवाने का विचार किया । इस कार्य के लिये ज्योतिषी से शुभ दिन पूछा गया, एक विद्वान् प्रधान कलाचार्य को बुलाया गया, विधिपूर्वक उनकी पूजा की गई और इस प्रसंग के योग्य सभी क्रियाएँ पूर्ण कर आदर पूर्वक मेरे पिता ने मुझे कलाचार्य को सौंपा। मेरे भाई-भतीजे और अन्य राजपुत्र भी शिक्षा ग्रहण करने के लिये इन्हीं कलाचार्य को पहले सौंपे गये थे । उन सब के साथ मैं भी कला - ग्रहण ( अध्ययन ) करने लगा । अभ्यास के समग्र साधन होने से, पिता का शिक्षा के प्रति प्रबल उत्साह होने से, कलाचार्य का मेरे अभ्यास के प्रति विशेष आकर्षण होने से, बालपन में चिन्तारहित होने से, पुण्योदय के सर्वदा साथ होने से, क्षयोपशम उत्कृष्ट होने से और उस समय भवितव्यता के अनुकूल होने से, दूसरे किसी भी कार्य में ध्यान न देकर एकचित्त से शिक्षा ग्रहण करते हुए मैं अल्प समय में ही कलाचार्य से सभी कलाएँ सीख गया ।
वैश्वानर की मित्रता का दुष्प्रभाव
मेरा मित्र वैश्वानर जो मुझे अत्यन्त प्रिय था मेरे पास ही रहता था और मेरे शिक्षा काल में भी कभी-कभी कारण - अकारण मुझे मिल जाया करता था । मेरा प्यारा मित्र जब भी मुझे मिलता मैं कलाचार्य के उपदेश को भूल जाता, मेरे उत्तम कुल को कलंक लगने की परवाह नहीं करता यह सब जानकर मेरे पिताजी को दुःख होगा इसका भय नहीं रखता, मैं इन बातों के परमार्थ ( रहस्य ) को समझ नहीं पाता, हृदय की अर्न्तज्वाला को भी मैं नहीं पहिचान पाता और मेरी शिक्षा व्यर्थ हो रही है इसे भी नहीं समझता । मैं तो केवल वैश्वानर को मेरा परम मित्र मानते हुए उसके कहने के अनुसार पसीने से लथपथ होकर, अंगारे जैसी लाल आँखें और भवे चढाकर मैं अन्य विद्यार्थियों से लड़ाई-झगड़ा करता, सब की गुप्त बातों की चुगली कलाचार्य से करता और अशिष्ट वचन बोलता । यदि कोई बीच में पड़कर मुझे समझाने का प्रयत्न करता तो मैं सहन नहीं करता और पास में डण्डा या जो कुछ होता उससे उसको पीट देता । वैश्वानर इसके साथ है, यह जानकर वे सभी सहाध्यायी भय से त्रस्त होकर जैसा मुझे अनुकूल लगे वैसा ही बोलते, मेरी चाटुकारिता करते और मेरे पाँव पड़ते । अधिक क्या ! सभी राजपुत्र शक्तिशाली थे
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