________________
प्रस्ताव २ : पंचाक्षपशु-संस्थान
१८३
मस्तिष्क से निकली इन्द्रजाल सी कल्पित लग रही है । अतः हे माता ! इस कथा का भावार्थ क्या है ? वह मुझे समझाइये ।'
प्रज्ञाविशाला ने कहा-इस चोर का वर्तमान में विशेष रूप क्या है, यह इसने अभी तक नहीं बताया है । सामान्य रूप से तो यह संसारी जीव नामक * पुरुष है । इसी नाम से इसने अपनी कथा कही है । यह सारा वृत्तान्त ठीक ही है। यह घटना किस प्रकार से है ? मैं तुझे समझाती हूँ।
यहां असंव्यवहारिक जीव राशि को ही असंव्यवहार नगर कहा गया है। पृथ्वी, जल, तेज, वायु, अग्नि और वनस्पति इन पाँचों एकेन्द्रिय जाति के जीवों की उत्पत्ति और निवास का स्थान एकाक्षनिवास नगर कहा है। दो, तीन और चार इन्द्रिय वाले जीवों को विकलेन्द्रिय कहा जाता है, अतः उनकी उत्पत्ति और निवासस्थान को विकलाक्षनिवास नगर कहा है। पांच इन्द्रिय वाले तिर्यंचों के स्थान को पंचाक्षपशु-संस्थान नगर कहा है। एक भव में भोगने योग्य उदय में आये हए कर्मों को 'एकभववेद्य' गोली कहा गया है । इन कर्मों के उदय से जीव नाना प्रकार के रूप धारण करता है और सुख-दुःख आदि का अनुभव भी करता है । यह पुरुष (जीवआत्मा) स्वयं तो अजर अमर है, यह कभी जीर्ण नहीं होता, इसकी कभी मृत्यु नहीं होती है, अतः यह अनन्त काल तक रहे तो इसमें कुछ नवीनता नहीं है। हे भद्र ! -संसारी जीव ही कृमि और चिउंटी जैसे रूप धारण करता है. इसमें आश्चर्य क्या है ? अभी तू बालक है, मुग्ध है, इसलिये यह सब बात नहीं जानता । पुत्र ! देख, इस विश्व में त्रिभूवन में ऐसा कोई भी चरित्र नहीं जिसे संसारी जीव न धारण करता हो । अतः हे वत्स ! इस संसारी जीव ने जो कुछ भोगा है, वह सब इसे कहने दे। फिर मैं उचित अवसर पर निराकुल होकर इस सब का भावार्थ (रहस्य) तुझे समझाऊंगी।
भव्यपुरुष ने अपनी धात्री प्रज्ञाविशाला की बात को 'जैसी माता की आज्ञा' कहकर शिरोधार्य की।
उपसंहार उत्पत्तिस्तावदस्यां भवति नियमतो वर्यमानुष्यभूमौ, भव्यस्य प्राणभाजः समयपरिणतेः कर्मणश्च प्रभावात् । एतच्चाख्यातमत्र प्रथममनु ततस्तस्य बोधार्थमित्थं, प्रक्रान्तोऽयं समस्तः कथयितुमतुलो जीवसंसारचारः ॥१॥
अतुलनीय संसार में संचरण करने वाले जीव का जो वर्णन यहाँ किया मया है, उस भव्य प्राणी की उत्पत्ति, समय-परिणति (काल परिणति) और कर्म
* पृष्ठ १३८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org