________________
उपमिति-भव-प्रपंच कथा
हुआ था, मौर उसे गधे पर बिठा रखा था। उसके चारों ओर राज्य कर्मचारी चल रहे थे, लोग उसकी निन्दा कर रहे थे, उसका पूरा शरीर थरथर कांप रहा था, भय से छाती धड़क रही थी और वह फटी हुई आँखों से चारों तरफ देख रहा था।
चोर का सदागम की शरण में आना
यह दृश्य देखकर प्रज्ञाविशाला को उस पर करुणा आई। उसने मन में सोचा कि महात्मा सदागम के अतिरिक्त और कोई भी इस बेचारे को शरण नहीं दे सकता। ऐसा सोचकर वह उस संसारी जीव के पास गई और बहुत प्रयत्नपूर्वक समझाकर उस चोर को सदागम के दर्शन कराये एवं कहा 'भद्र ! तू इन महापुरुष की शरण ग्रहण कर ।' वह चोर भी जैसे ही सदागम के पास आया वैसे ही उसमें अपूर्व विश्वास पैदा हो गया तथा ऐसी चेष्टा और विचार करने लगा मानों वह कोई अपूर्व अवर्णनीय अवस्था का अनुभव कर रहा हो। सब लोगों के देखते-देखते वह अपनी आँखें बन्द कर जमीन पर पड़ गया। कुछ समय तक वह वैसे ही बिना हिले-डुले निश्चल पड़ा रहा । 'इस चोर को एकाएक क्या हो गया ?' ऐसे विचार से नगर के जो लोग उसके पीछे आये थे, वे आश्चर्य करने लगे। उसके पश्चात् धीरे-धीरे उस चोर को चेतना आने लगी और वह थोड़ा सावधान हुआ। फिर उठकर सदागम को लक्ष्य कर जोर-जोर से पुकारने लगा-'हे नाथ ! मेरी रक्षा करें, हे नाथ ! मेरी रक्षा करें ।' उसकी पुकार सुनकर 'तू भय का त्याग कर, अभय हो, अभय हो।' कहकर सदागम ने उसे आश्वासन दिया। उसके बाद वह सदागम की शरण में पाया, सदागम महात्मा ने भी उसको स्वीकार कर लिया। जो राजपुरुष सदागम के माहात्म्य और अद्भुत शक्ति को जानते थे वे मन में समझ गये कि अब यह पुरुष अपनी राजसत्ता में नहीं रहा । अतः भय से कांपते हुए एकएक कदम पीछे चलते हुए बाहर निकल गये और उस स्थान से दूर जाकर बैठ गये। संसारो जीव को भी इससे कुछ शांति मिली। चोर का वृत्तान्त
अगृहीतसंकेता ने संसारी जीव से पूछा-'भद्र । तूने क्या अपराध किया था कि इन यम जैसे राजपुरुषों ने तुझे पकड़ रखा था ?' प्रश्न सुनकर संसारी जीव ने कहा-'आप इस विषय में पूछ कर क्या करेंगी? यह कहने योग्य विषय नहीं है । भगवान् सदागम यह सब वृत्तान्त अच्छी तरह जानते हैं अतः यह सब बताने की आवश्यकता भी नहीं है।' तब सदागम ने कहा-'भद्र ! इस अगृहीतसंकेता को तेरा वृत्तान्त सुनने की उत्सुकता है, अतः उसकी जिज्ञासा को शान्त करने के लिये तू अपनी दशा बतलादे, इसमें कोई दोष (आपत्ति) नहीं है।' तब संसारी जीव ने कहा-'नाथ ! जैसी आपकी आज्ञा ! परंतु में आप बीती दु:खद
* पृष्ठ १२४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org