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प्रस्ताव २ : संसारी जीव तस्कर
१६५ यदि ये महात्मा मेरे उपाध्याय (शिक्षक) बन सकें तो मैं इनके पास समस्त कलाओं को इनसे ग्रहण करू ।
[३०-३७] सदागम को उपाध्याय का स्थान
राजपूत्र के मन में जो विचार उत्पन्न हुए उनको उसने प्रज्ञाविशाला को बतलाया और उसने उसके माता-पिता को सब बात समझाई। उनको भी यह बात सुनकर अत्यधिक प्रसन्नता हुई । उसके पश्चात् शुभ दिन देखकर उन्होंने महोत्सवपूर्वक अपने पुत्र को शिक्षण हेतु सदागम को समर्पित किया । परम्परानुसार सदागम महात्मा का अद्भुत पूजा सत्कार कर भव्य पुरुष सुमति को उनका शिष्य बनाकर सोंप दिया। उस समय उस गंभीर कुमार के शरीर पर श्वेत चन्दन का लेप किया गया, उसे धवल वस्त्र आभूषण पहनाये गये और स्वेत पुष्पों से ही उसका शृगार किया गया। अब वह कुमार महानन्द और प्रमोद पाते हुए विनयपूर्वक शिष्य बनकर उन उपाध्याय के पास जाने लगा उसकी कलाग्रहण की कामना से है और सदागम की भी इच्छा उसे कलाएं सिखाने की हैं। इसके पश्चात् प्रतिदिन राजकुमार प्रज्ञाविशाला के साथ धीमान् सदागम के पास जिज्ञासापूर्वक विद्याध्ययन के लिये जाने लगा।
[३८-४३] संसारी जीव
एक दिन बाजार में महात्मा सदागम आनन्द से बैठे थे। उनके साथ प्रज्ञाविशाला और राजकुमार भी बैठे थे। सदागम के चारों ओर दूसरे अनेक मनुष्य भी बैठे थे । वे महात्मा उनसे अनेक विषयों पर वार्तालाप कर रहे थे। उस समय अगृहीतसंकेता भी अपनी सखी प्रज्ञाविशाला के पास आकर, सदागम को नमस्कार कर, शुद्ध जमीन देखकर बैठ गई। उसने अपनी प्यारी सखी से कुशल समाचार पूछे, राजपुत्र का सम्मान किया और सदागम के सामने आँखें स्थिरकर बैठ गई ।
[४४-४७] उस समय एक दिशा में से अचानक कोलाहल सुनाई देने लगा। उस दिशा की तरफ से फूटे हुए अस्त-व्यस्त ढोल की कर्ण कट ध्वनि आ रही थी। तूफानी लोगों के अट्टहास की आवाज भी आ रही थी। ऐसे विचित्र कोलाहल को जानने के लिए उत्सुक सम्पूर्ण सभा की दृष्टि उस तरफ आकर्षित हुई। उस समय उन्होंने अपने निकट ही एक संसारी जीव नामक चोर को देखा जिसके कारण से वह कोलाहल उठा था । उस चोर के सारे शरीर पर राख चुपड़ी हुई थी, उसकी चमड़ी पर गेरुएं रंग के हाथ छापे हुए थे, सारे शरीर पर घास की राख से काले तिलक (टीका) बनाये गये थे, गले में कनेर के डोडों की माला पड़ी हुई थी
और छाती पर कोड़ियों की माला लटकी हुई थी। टूटी हुई मटकी का ठीकरा सिर पर छत्र की तरह रखा हुआ था, गले के एक तरफ चोरी का माल लटका
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