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________________ १६० उपमिति-भव-प्रपंच कथा प्रज्ञाविशाला- तेरी बात ठीक है। परन्तु महापुरुष सदागम का यह स्वभाव है कि जो प्राणी उनके वचनों से विपरीत प्राचरण करते हैं, ऐसे कुपात्रों की वे सर्वदा उपेक्षा करते हैं। जिन प्राणियों के प्रति सदागम उपेक्षाभाव रखते हैं वे आश्रयहीन हैं, ऐसा समझकर कर्मपरिणाम राजा उनकी अत्यधिक कदर्थना करते हैं । जो प्राणी स्वयं सपात्र बनकर महापुरुष सदागम के निर्देशानुसार कार्य करते हैं उन्हें सदागम अपनी प्रकृति का अनुसरण करने वाला समझकर कर्मपरिणाम राजा की तरफ से दी जाने वाली यंत्रणाओं से पूर्णतया मुक्ति दिला देते हैं। जिन लोगों की भगवान् सदागम पर प्रीति-भक्ति होने पर भी उनके वचनानुसार पूर्ण रूप से अनुष्ठान (आचरण) करने में सामर्थ्यहीन होने से उनके वचनों में से जो अत्यधिक, अधिक, अल्प या अत्यल्प भी आचरण करते हैं, या जो सदागम पर अंतःकरण पूर्वक भक्ति रखते हैं और कुछ नहीं तो जो केवल अन्तरात्मा से उसका नाम भी स्मरण करते हैं और इस महात्मा के वचनों का नाममात्र (अत्यल्प) भी अनुसरण करते हैं, उन पर यह महात्मा 'धन्य, कृतार्थ, पुण्यशाली, सुलब्धजन्म' आदि शब्दों से उनका पक्ष लेते हैं। जो प्राणी इस पूज्य महात्मा का नाम भी नहीं जानते पर जो स्वभाव से ही भद्र होते हैं वे अन्धे की लाठो की तरह मार्गानुगामी बन जाते हैं, वे अनाभोग से भी सम्यग् बोध के अभाव में भी, नहीं जानते हुए भी) इस महात्मा के वचनों का अनुसरण करने वाले बनते हैं। यद्यपि ऐसे अनेक प्रकार के प्राणियों को कर्मपरिणाम महाराजा संसार-नाटक में कुछ समय तक नचाते हैं तदपि वे सदागम को प्रिय हैं ऐसा जानकर उनसे नारकी, तिर्यंच, असंयमी मनुष्य या अधम देवता का अभिनय नहीं करवाते। ऐसे लोगों से अनुत्तरविमानवासी देवता, ग्रैवेयक देवता, कल्पोपपन्न देवता, पातालस्थ कल्पोपपन्न महद्धिक देवता, ज्योतिषी, चक्रवर्ती या महामाण्डलिक आदि का प्रधान पुरुष के रूप में अभिनय करवाता है। इस प्रकार भिन्न-भिन्न अभिनय की स्थितियों में उनसे नाटक करवाता है परन्तु उनसे निम्न कोटि के पुरुषों का अभिनय कभी नहीं करवाता। इतना प्रचण्ड शक्तिशाली कर्मपरिणाम महाराजा भी पूज्य सदागम के भय से कांपता रहता है। यह एक ही बात सदागम के माहात्म्य को समझने के लिये पर्याप्त है। सदागम का स्वरूप हे मृगाक्षि ! यदि तुझे अभी भी कौतुक हो कि सदागम महात्मा का कैसा स्वरूप है ? तो मैं वह सुनाती हूँ, तू सुन-परमार्थ से देखें तो यह महात्मा तीनों जगत् का स्वामी है। वस्तुतः सब पर स्नेह रखने वाला, संसार का शरणस्थल, सब का बन्धु, विपत्ति के अन्धकूप में पड़े हुए प्राणियों का आश्रयदाता और संसार अटवी में भटकते हुओं को सन्मार्ग बताने वाला भी यही है। समस्त व्याधियों की सच्ची औषधि देने वाला महान् वैद्य और सर्व व्याधियों का अन्त करने वाली महान् औषधि भी यही है। समग्र वस्तुओं का प्रकाशक होने से जगदीपक, प्रमाद-राक्षस के * पृष्ठ ११८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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