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________________ उपमिति-भव-प्रपंच कथा योग्य है, पर उसके अनुसार आचरण करने में वे अपने को अशक्त पाते हैं। कितने ही तो उनके वचन से डरकर दूर से ही भाग खड़े होते हैं। कितने ही उन्हें ठग समझकर शंकालु बनते हैं और बहुत से प्राणी तो उसके वचन को मूल से ही नहीं समझते। कितने ही उनका वचन सुनते हैं पर उसमें रुचि नहीं रखते । कुछ प्राणियों की उनके वचनों पर रुचि तो होती है किन्तु उसके अनुसार आचरण नहीं कर पाते और कुछ उन पर आचरण करना शुरु करके फिर शिथिल पड़ जाते हैं। इस प्रकार सदागम को परोपकार करने की बहुत इच्छा होते हुए भी उनकी धारणा के अनुसार फल प्राप्त नहीं होता। प्राणियों में ऐसी अपात्रता होने के कारण सदागम को निरन्तर अत्यधिक खेद होता रहता है। कुपात्र प्राणी को उपदेश देने का बहुत प्रयत्न किया जाय और वह निष्फल हो जाये तो सद्गुरु के चित्त में खेद का हेतु बनता है। यह राजपुत्र भव्यपुरुष है, अतः उन्हें लगता है कि यह सुपात्र होगा। कोई प्राणी भव्य हो पर वह दुर्मति हो तो वह सुपात्र नहीं हो सकता। किन्तु, यह राजपुत्र तो भव्यपुरुष और सुमति (सद्बुद्धि) भी है इसलिये सुपात्र है और इसी कारण वह सदागम को अत्यन्त वल्लभ लगता है। सदागम के प्रानन्द का कारण सदागम अन्तःकरण से यह मानता है कि इस बालक के पिता कर्मपरिणाम महाराजा होने से इसके कर्म-परिणाम (कर्मफल) सुन्दरतम होंगे तथा इसकी माता काल-परिणति होने से इसका काल अनुकूल होकर व्यतीत होगा। उनको लगता है कि राजपुत्र का बालभाव दूर होने पर, स्वभाव की सुन्दरता से, कल्याण-परम्परा सन्निकट होने से और उसके जैसे पुरुष को मेरे दर्शन करने से प्रसन्नता होने पर जब वह मेरे पास आयेगा तो उसको इस बात का वितर्क (बोध) होगा कि जिस नगर में सदागम जैसा परमपुरुष रहता है, वह मनुजगति नगरी बहुत सुन्दर है। मेरे में कुछ योग्यता होगी ही तभी तो इस महापुरुष से मेरा समागम हुआ है। अब इस श्रेष्ठ पुरुष की विनयपूर्वक आराधना कर इनकी कृपा से ज्ञान का अभ्यास करूंगा। ऐसे-ऐसे विचार वह बालक करेगा और बालक के विचारों से प्रभावित होकर उसके माता-पिता अनुकूल होने से वे पुत्र को मुझे समर्पित कर देंगे अर्थात् यह सुमति मेरा शिष्य बनेगा और मैं अपना ज्ञान इस बालक को देकर कृतकृत्य हो जाऊंगा। इस दृष्टि से भव्यपुरुष सुमति के जन्म को सदागम अपनी आत्मा की सफलता मानता है और इस प्रसंग में अपने मन में सन्तोष होने से वह राजपुत्र के गुणों का लोगों के सन्मुख वर्णन करता है। सदागम का माहात्म्य अगहीतसंकेता-सखि ! इस सदागम का ऐसा क्या माहात्म्य है कि पापिष्ठ प्राणी उसे नहीं समझ सकते और इसीलिये उनके कहने के अनुसार वे पाचरण नहीं कर सकते ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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