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________________ प्रस्ताव २ : सदागम का परिचय १५७ जन्म कैसे हुआ ? यह पुरुष कौन है जो सर्वज्ञ के समान इस भव्यपुरुष के भविष्य का कथन करता है ? उसी समय मैंने अपने मन में निश्चय किया था कि मैं अपनी अतिप्रिय सखी के पास जाकर दोनों शंकाओं का समाधान करूंगी, क्योंकि इन सब बातों में वह बहुत चतुर है। मेरे मन में जो दो शंकाएं उत्पन्न हुई थीं उनमें से पहली तो तुमने दूर करदी, अब मेरी दूसरी शंका को भी दूर कर । * ५. सदागम का परिचय सदागम का परिचय प्राप्त करने की अगृहीतसंकेता की उत्सुकता जानकर प्रज्ञाविशाला ने अपनी सखी को इस महापुरुष का परिचय इस प्रकार दिया : प्रिय सखि ! कार्यकलापों के आधार से मैं उन्हें जानती हैं कि वह मेरा परिचित परमपुरुष सदागम ही होगा। उसी को तूने उक्त बातें करते हुए देखा है ऐसा मुझे लगता है, क्योंकि वह भूत, भविष्य और वर्तमान के सब भावों को हाथ में रखे हुए आंवले की तरह जानता है और उन भावों का प्रतिपादन करने में वह अत्यन्त पटु है । इनके अतिरिक्त अन्य कोई पुरुष नहीं हो सकता । सदागम के अतिरिक्त इस मनुजगति नगरी में चार और महापुरुष अभिनिबोध, अवधि, मनपर्यव और केवल नामक रहते हैं। यद्यपि वे सदागम जैसे ही हैं पर किसी के सामने उन भावों का प्रतिपादन करने की शक्ति उनमें नहीं है। वे चारों ही अपने स्वरूप से गूगे हैं। इन चारों महापुरुषों के माहात्म्य और स्वरूप का वर्णन भी भगवान् सदागम ही लोगों के सामने करते हैं; क्योंकि वह सत्पुरुषों की चेष्टाओं का अवलम्बन करने वाला है और दूसरों के गुणों को प्रकाशित करने का सदागम (श्रुतज्ञानी) का स्वभाव ही है । अगृहीतसंकेता-सखि ! सदागम को यह राजपुत्र अत्यन्त प्रिय है तथा इस बालक के जन्म से सदागम अपनी आत्मा को सफल मानता है, इसका क्या कारण है ? प्रज्ञाविशाला--यह सदागम महापुरुष है। परोपकार-परायण होने से वह अन्य प्राणियों का उपकार करने में सतत प्रयत्नशील रहता है, इसलिये ऐसा ही आचरण करता है जिससे सर्व प्राणियों का हित हो। केवल पापिष्ठ प्राणी ही उसके वचन का अनुसरण नहीं करते । महात्मा सदागम के माहात्म्य (ज्ञानवैभव और परोपकारी स्वभाव) को ये पापी प्राणी नहीं समझते । यही कारण है कि महात्मा सदागम सर्वदा हितकारी उपदेश देते हैं फिर भी उनमें से कई लोग इनको ही दोष देते हैं । कितने ही उन्हें धिक्कारते हैं, मजाक उड़ाते हैं। कितने ही यह तो स्वीकार करते हैं कि इनका उपदेश ग्रहण करने * पृष्ठ ११६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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