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________________ प्रस्ताव २ : भव्य पुरुष का जन्म भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में परिवर्तित करने की चतुराई इस महादेवी में है। इस प्रकार अपनी सत्ता रंगभूमि से बाहर भी निष्पादित होने से अपने पति से भी अपने को बड़ी मानने वाली अभिमानिनी महादेवी क्या-क्या नहीं कर सकती ? ऐसे अविच्छिन्न चलते अत्यन्त अद्भुत नाटक को कराने में और देखने में निरन्तर प्रवृत्त महाराजा और महारानी का मन अत्यधिक प्रमुदित रहता है और वे दोनों इस नाटक को देखने में ही अपने राज्य की सफलता मानते हैं। ३: भव्य पुरुष सुमति का जन्म संसार नाटक देखते हए और नये-नये खेल करते हए कर्मपरिणाम राजा और कालपरिणति महारानी अानन्द से समय बिता रहे थे । एक समय वे एकान्त में आनंद कल्लोल करने बैठे थे तभी राजा को प्रानन्द में देखकर महारानी ने कहा : नाथ ! भोगने योग्य सभी पदार्थों का मैंने भोग किया है और पीने योग्य सभी पेय पदार्थों का का पान किया है तथा मान करने योग्य को मान देकर बहुत अभिमानपूर्वक जीवन बिताया है । हे प्रभो! आपके पादपद्मों की कृपा से इस संसार में कोई भी ऐसा सुख नहीं बचा जिसका आस्वाद मैंने न पाया हो । मेरे सुन्दर नाथ ! आपकी कृपा से मैं समस्त प्रकार के कल्याण प्राप्त कर चुकी हूँ और देखने योग्य समस्त पदार्थों को देख चुकी हूँ, परन्तु हे देव ! अभा तक मैंने पुत्र का मुख नहीं देखा है, अतः आपकी कृपा से मुझे एक पुत्र प्राप्त हो जाये तो मेरा जीवन * सफल हो, अन्यथा यह जीवन निष्फल है। [१-५] राजा -- देवी ! तुमने बहत ही अच्छी बात कही। यह बात मुझे भी रुचिकर लगती है । सभी कामों में हम दोनों एक समान सुखी-दुःखी होते हैं अतः हे प्रिये ! इस विषय में तू थोड़ा भी खेद मत कर; क्योंकि जिस काम में हम दोनों एकमत हो जाते हैं वह काम तत्काल सफल हो जाता है। [६-७] रानी--प्रभो ! आपने बहुत ठीक कहा, मुझ पर बहुत कृपा की। आपके कथनानुसार पुत्र अवश्य होगा. ऐसा मुझे विश्वास है और इस विषय में मैं अभी से गांठ बाँध लेती हूँ। पति ने जो वचन कहे, उन्हें सुनकर महादेवी की अाँख में हर्ष से आँसू आ गये । पति के वचन पर पूर्ण विश्वास होने से उसे अतिशय संतोष हुआ। उसके बाद एक दिन वह कमल के समान नेत्रों गली महादेवी अपने शयन कक्ष में सो रही थी तभी रात्रि के अन्तिम प्रहर में उसने एक स्वप्न देखा कि 'सर्वांगसुन्दर एक पुरुष ने उसके मुख से होकर पेट में प्रवेश किया, फिर वह उदर से बाहर निकला और उसे उसका कोई मित्र ले गया ।' स्वप्न देखने से महादेवी की आँख खुल गई । इस स्वप्न से उसे कुछ प्रानन्द और कुछ * पृष्ठ १११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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