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________________ ११. उपमिति-भव-प्रपंच कथा अतिरिक्त मुझे जो भी कर्त्तव्य करना हो, उसे आप कहिये ।" वैसे ही चारित्र मोहनीय कर्म से विह्वल चित्त वाला यह जीव भी इस प्रकार विचार करता हैअरे! ये धर्माचार्य तो विशिष्ट प्रयत्नपूर्वक मुझे बारम्बार धर्मदेशना देने लग गये हैं । फलतः यह स्पष्ट है कि ये धन-विषय-कलत्रादि का मेरे से त्याग करवाना चाहते हैं किन्तु मैं किसी भी अवस्था में इनका पूर्णरूपेण त्याग नहीं कर सकता, तब क्यों नहीं मेरे विचार इनको स्पष्ट रूप से बतला दूं? जिससे ये धर्माचार्य व्यर्थ में ही बारम्बार अपना कण्ठ शोषण न करें। ऐसा निश्चय कर यह जीव धर्माचार्य को अपना अभिप्राय स्पष्ट शब्दों में बता देता है। [२८ ] निष्पुण्यक को उपदेश जैसा कि पहले कह चुके हैं:-"दरिद्रो के ऐसे वचन सुनकर धर्मबोधकर सोचने लगा-इसे तो मैंने तीनों औषधियों का उपयोग करने की बात कही, तो उसके उत्तर में यह क्या कहने लग गया ? अरे हाँ, अब समझा, अभी तक इसके मन में ऐसा ही विचार चल रहा है कि मैं अभी उसके साथ जो बातचीत कर रहा हूँ, उसका उद्देश्य किसी भी तरह उससे कुभोजन का त्याग करवाने का ही है । ऐसे विचार वह तुच्छतावश कर रहा है। सच कहा है-'क्लिष्ट (मलिन) चित्त वाले प्राणी सम्पूर्ण जगत् को दुष्ट मानते हैं और शुद्ध विचार वाले प्राणी सम्पूर्ण संसार को पवित्र मानते हैं।' दरिद्रो को अपने प्रयत्न का विपरीत अर्थ लगाते देखकर धर्मबोधकर तनिक मुस्कराये और बोले-"तू तनिक भी धबरा मत । मैं तेरे पास से अभी तेरा तुच्छ भोजन नहीं छुड़ाता। तू बिना डरे अपना भोजन कर सकता है । मैंने पहले जो तुझे कुभोजन का त्याग करने को कहा था, वह तो मात्र तेरे ही हित के लिए कहा था, पर जब तुझे यह बात रुचिकर नहीं है तो मैं अब इस सम्बन्ध में चुप रहूँगा । पर तुझे क्या करना चाहिये, इस प्रसंग में अभी मैंने जो उपदेश दिया और महाराज का गुणगान किया, उसमें से तूने अपने हृदय में कुछ धारण किया या नहीं ?" वैसे ही इस जीव के सम्बन्ध में धर्माचार्य चिन्तन करते हैं और उसको सम्बोधित कर कहते हैं वह धर्मबोधकर के चिन्तन और वक्तव्य के समान स्पष्ट है, अतः इसकी योजना स्वकीय बुद्धि के अनुसार कर लेनी चाहिये। [ २६ ] निष्पुण्यक को स्वीकारोक्ति धर्मबोधकर का प्रश्न सुनकर दरिद्री निष्पुण्यक ने उसका उत्तर बड़े विस्तार से दिया, जो कथा-प्रसंग में विस्तार से पहले कह चुके हैं। पूर्व प्रसंग का * पृष्ठ ८५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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