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प्रस्ताव १ : पीठबन्ध
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प्रदान करें ।" वैसे ही प्राचार्यदेव के बारम्बार प्रेरित करने पर गलिया बैल के समान पैरों को पसारता हुआ यह जीव भी इसी प्रकार कहता है-भगवन् ! मैं धनविषय- कलत्रादि को किसी भी कीमत पर छोड़ नहीं सकता, अतएव आप यदि इनको मेरे पास विद्यमान रखते हुए किसी प्रकार का चारित्र दे सकते हों तो दीजिये ।
भोजन ग्रहण
जैसा कह चुके हैं: - " उसका ऐसा अत्यन्त प्राग्रह देखकर धर्मबोधकर ने मन में सोचा -इस बेचारे को समझाने का अभी तो बाधारहित कोई दूसरा उपाय नहीं है, अतः वह अपना कुत्सित भोजन भले ही अपने पास रखे, अपना यह भोजन तो इसे देना ही चाहिये । जब उसे इस स्वादिष्ट भोजन का रस लगेगा तब अपने आप ही वह उस कुभोजन का त्याग कर देगा । इस प्रकार सोचकर धर्मबोधकर ने कहा - "तेरा भोजन तेरे पास रहने दे और हमारा यह परमान्न भोजन ग्रहण कर तथा उसका उपभोग कर ।" दरिद्री ने कहा- "ठीक है, मैं ऐसा करूँगा ।" उसका ऐसा उत्तर सुनकर धर्मबोधकर ने अपनी पुत्री तया को संकेत किया और उसने द्रमुक को भोजन दिया । दरिद्री ने तुरन्त उस भोजन को ग्रहण किया और वहीं बैठे-बैठे उसे खाया । इस भोजन से उसकी भूख शान्त हुई और उसके शरीर के अंग-अंग पर जो रोग थे वे प्रचुर मात्रा में कम हुए। पहले आँख में सुरमे के प्रयोग से और फिर पानी पीने से उसे जो सुख प्राप्त हुआ था उससे अनन्त गुणा सुख इस सुन्दर भोजन के करने से प्राप्त हुआ और उसके हृदय में अतीव प्रसन्नता हुई । ऐसा होने पर उस दरिद्रो को धर्मबोधकर पर प्रोति और भक्ति उत्पन्न हुई । उसके मन में जो शंका थी वह दूर हुई और वह हर्षित होकर बोला - " मैं भाग्यहीन हूँ, सब प्राणियों में अधम हूँ और आप पर मैंने किसी प्रकार उपकार नहीं किया फिर भी आप मुझ पर इतनी अनुकम्पा (दया) दिखा रहे हैं, अतः हे प्रभो ! आपके सिवाय दूसरा कोई भी मेरा नाथ नहीं है ।"
सर्वविरति और देशविरति
जब यह जीव विविध प्रकार से उपदेश देने और प्रयत्न करने पर भी धनादि के प्रति प्रबल मूर्च्छाभाव का त्याग नहीं करता तब धर्माचार्य जीव के सम्बन्ध में इस प्रकार विचार करते हैं--यह प्रारणी इस समय सर्वविरति चारित्र को ग्रहण नहीं कर सकता, अतः इस समय इसे देशविरति चारित्र ही प्रदान करू । देशविरति का पालन करने से इस जीव में विशेष गुरण उत्पन्न होंगे और इन गुणों से उसकी महत्ता को समझ कर, यह स्वतः ही समस्त प्रकार के सम्पर्कों (बन्धनों) का त्याग कर सर्वविरति अंगीकार कर लेगा। इस प्रकार दूरदृष्टि से विचार कर उसको देशविरति चारित्र प्रदान करते हैं ।
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