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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
नाममात्र को भी स्पृहा (अभिलाषा) नहीं करेगा। ऐसा कौन बुद्धिमान होगा जो अमृत को छोड़कर विष की चाहना करेगा? हम चारित्रिक परिणामों का जो उपदेश देते हैं, यह उपदेश तुझे यदा-कदा ही प्राप्त होता है; इससे तू यह समझता है कि भविष्य में तेरा निर्वाह कैसे होगा? तू यह मानता है कि धन-विषय-कलत्रादि प्रकृतिभाव में रहने के कारण सदा तेरे पास रहेंगे और तेरा कालान्तर में भो निर्वाह होता रहेगा, ऐसा मत मान । कारण यह है कि धनादि पदार्थ धर्मरहित प्राणियों के पास सर्वदा नहीं रहते हैं। यदि कदाचित् रहें तो भी विचारशील प्राणी कदापि उन्हें निर्वाहक के रूप में अंगीकार नहीं करते । समस्त प्रकार के रोगों को बढ़ाने वाला यह कुपथ्य भोजन सर्वदा प्राप्त होता रहे, तो यह पोषक है ऐसा कोई मान नहीं सकता। ये धनादि समस्त अनर्थ-परम्परा की जड़ है, अतः ये सुन्दर और पोषक हैं यह बुद्धि रखना अयुक्त है। जीव की यह प्रकृति भी नहीं है। जीव की स्वाभाविक प्रकृति तो अनन्त ज्ञान दर्शन वीर्य और आनन्दरूप है और धन-विषयादि का प्रतिबन्ध तो कर्ममलजनित वैभाविक प्रकृति है, अर्थात् विभ्रम है, ऐसी तत्त्ववेदी पुरुषों की मान्यता है। जब तक जीव अपने वीर्य (पौरुष पराक्रम) की स्फुरणा नहीं करता तब तक चारित्रिक परिणाम भी अल्पकालिक ही रहते हैं, वीर्य को उल्लसित करने पर चारित्रिक भाव दृढ़ और स्थायी बने रहते हैं और ये ही भाव इस जीव के कालान्तर में निर्वाहक बनने की योग्यता रखते हैं; अतएव विचारशील प्राणियों को चारित्रिक भावों के लिए प्रयत्न करना चाहिये। इसी चारित्रिक पराक्रम से महापुरुष परीषह और उपसर्गों को सहन करते हैं, धनादिक का तिरस्कार - करते हैं, रागादि समूह का निर्दलन करते हैं, कर्मजाल का उन्मूलन करते हैं, संसार सागर को तिर कर पार कर जाते हैं और सततानन्दमय शिवधाम (मोक्ष) में निवास करते हैं। अब तू ही बता कि मैंने जो तुझे ज्ञान प्रदान किया, क्या उससे तेरा अज्ञानमय अन्धकार नष्ट नहीं हुआ? अथवा मेरे से प्राप्त दर्शन द्वारा तेरे कुविकल्प रूपी बेताल का नाश नहीं हुआ ? फिर तू मेरे वचनों पर अविश्वास कर विकल क्यों हो रहा है ? अतएव हे भद्र ! संसारवर्धक इन धनादिकों का त्याग कर और मेरी दया (तद्दया) द्वारा लाया हुया चारित्र-(परमान) को तू ग्रहण कर। इस चारित्रभोजन को ग्रहण करने से तेरे समस्त कष्टों को परम्परा नष्ट हो जाएगी और तू शाश्वत स्थान प्राप्त करेगा।
[ २५ ] शर्त स्वीकार
जैसा पहले कहा जा चुका है:- “धर्मबोधकर के इस वक्तव्य को सुनकर निष्पुण्यक ने कहा ---भट्टारक महाराज ! मुझे अपने भोजन पर इतना स्नेह है कि उसके त्याग की कल्पना मात्र से मैं पागल होकर मर जाऊँगा, ऐसा मुझे लग रहा है। अतः हे महाराज ! यह मेरा भोजन मेरे पास रहने दें और आप अपना भोजन मुझे * पृष्ठ ८२
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