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प्रस्ताव १ : पोठबन्ध चिन्ता करते हैं, अभाषणीय वाचा का प्रयोग करते हैं और अनाचरणीय कर्तव्यों का आचरण करते हैं। इन दोनों प्रकार के कुविकल्पों में से आभिसंस्कारिक कुविकल्प सत् रु के सम्पर्क से कदाचित दूर हो जाते हैं, किन्तु दूसरा सहज कुविकल्प तो जब तक प्राणी की बृद्धि मिथ्यात्व से ग्रस्त होती है तब तक नष्ट नहीं होता; केवल अधिगमज सम्यग् दर्शन प्राप्त होने पर ही यह दूर हो सकता है ।
[ २२ ] तुच्छ भोजन पर मूर्छा
पहले कथा प्रसंग में कह चुके हैं:- "निष्पुण्यक के आँखों में अंजन और तत्त्वप्रीतिकर जल पिलाने वाले धर्मबोधकर के प्रति उसको विश्वास हुआ और उनका महोपकार मानते हुए भी अपने साथ लाये हुए झूठन से प्राप्त तुच्छ भोजन पर उसका चित्त मंडरा रहा था। उस झूठन पर से उसकी मूर्छा (प्रगाढ प्रेम) दूर नहीं हो रही थी। उसकी दृष्टि उसी झूठन पर बारम्बार पड़ रही थी।" इस कथन की जीव के साथ सगति इस प्रकार है : -- त्याग का भय
ज्ञानावरणीय और दर्शन मोहनीय वर्म के क्षयोपशम होने से इस जीव को सम्यग् ज्ञान और सम्यग् दर्शन हुआ। इससे संसार प्रपंच के प्रति इसकी जो तत्त्ववुद्धि थी (अर्थात् सांसारिक पदार्थों को अपना मानता था) वह नष्ट हो गई, जीवादि तत्त्वों का उसे ज्ञान हा और उस ज्ञान पर उसको अास्था हई, सम्यग दर्शन को प्रदान करने वाले धर्माचार्यों को उसने महोपकारी के रूप में स्वीकार किया, तथापि जब तक इस जीव के बारह कषायों का उदय और नो-कषाय प्रबल रूप में विद्यमान रहते है तब तक अनादिकाल से अभ्यस्त वासनाओं (संस्कारों) के वशीभूत होने के कारण कुत्सित भोजन के समान धन-विषय-कलत्रादि पर होने वाली मूर्छा (गाढासक्ति) को रोकने में वह शक्तिमान् (सफल) नहीं होता । इसका कारण यह है कि कुशास्त्र श्रवण से असत्सस्कार पड़ जाने के कारण 'यह समस्त सृष्टि अण्डे से उत्पन्न हुई' इत्यादि अनेक प्रकार के संस्कारजन्य कुतर्क उत्पन्न होते हैं, धन-कलत्रादि पर अपनत्व की बुद्धि तथा उसके संरक्षण के प्रयत्न और अंशंकनीय धर्माचार्यादि पर शंका इत्यादि सहजजन्य कुविकल्प मिथ्यादर्शन के उदय (प्रभाव) से उत्पन्न होते हैं। ये कुविकल्प मरुस्थली में सूर्य के चिलके से नजर आने वाली जलकल्लोलमाला (मरु मरीचिका) के समान असत्य होते हैं ! मिथ्या ज्ञान विशेष और कुतीथिकों द्वारा प्रस्थापित तर्क अन्य प्रमाणों से बाधित होने पर सम्यग् दर्शन प्राप्ति के समय नष्ट हो जाते हैं तथापि धन-विषय-स्त्री पर मूर्छा लक्षण रूप जो मोह होता है वह अपूर्व शक्तिमान होता है और वह तत्त्वबोध होने पर भी दिड मूढ जीव के साथ चिपका हुअा रहता है । प्रबल मोहग्रस्त जीव कुशाग्रलग्न जलबिन्दु के समान समस्त पदार्थों को चपल (नश्वर) मानते हुए भी नहीं मानता
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