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________________ उपमिति-भव-प्रपंच कथा कृपणातिरेकता! अहो मेरी अवैचारिकता ! मूर्खता ! मुझे धिक्कार है । मैंने अत्यन्त तुच्छ विचारों और धनादि पर गाढासक्ति के कारण ऐसे प्राचार्य भगवन्तों के प्रति कुत्सित विचार किये। ये सत्पुरुष तो निरन्तर परहितैकपरायण हैं, दोषरहित होकर सन्तोष (धन) से शरीर का पोषण करते हैं, मोक्ष-सुखरूपी अविनाशी धन को प्राप्त करने में विशुद्धभाव से प्रयत्नशील हैं. तुषमुष्टि (फोंतरों की भरी हुई मुट्ठी) के समान संसार के विस्तार को निस्सार समझते हैं, स्वशरीर को पिंजरे के समान बन्धन समझकर ममत्वबुद्धि से रहित हैं। ऐसे ये धर्माचार्य आदि साधुगण हैं। ऐसे सत्पुरुष भी धर्मदेशना या अन्य किसी प्रपंच के द्वारा अथवा धूर्तता से मेरा धन-विषय-कलत्रादि हरण कर लेंगे, इत्यादि अनेक प्रकार की कुकल्पनाएँ मैंने पहले की थीं। ऐसे दुष्ट विचारों के कारण मैं महाअधम हूँ, नीचातिनीच हूँ। मुझे धिक्कार है। यदि यह धर्माचार्य जो परोपकारपरायण हैं, मेरे ऊपर अकारण ही उपकार नहीं करते, तो सद्गतिरूप नगर में जाने के लिए निर्दोष और प्रशस्त मार्ग दिखाते हुए. सम्यग् ज्ञान प्रदान करने के बहाने से नरकगमन योग्य मेरो चित्तवृत्ति को क्यों रोकते ? मिथ्यात्व दर्शन से ग्रस्त मुझे स्वयं के बुद्धिकोशल से सम्यक् दर्शन प्राप्त करवाकर, मैं समस्त दोषों से मुक्त हो सकू, इसके लिये ये विशेष प्रयत्न क्यों करते ? ये श्रमण तो पूर्णतया निःस्पृह हैं। इनकी दृष्टि में स्वर्ण और प्रस्तर एक समान हैं, परहित करने का इनको व्यसन है अतएव सर्वदा इसी आचरण में तत्पर रहते हैं और किसी भी प्रकार के प्रत्युपकार की अपेक्षा रखे बिना ही दूसरों का उपकार करते रहते हैं। ऐसे परोपकारी महात्माओं का तो मेरे जैसा प्राणी प्राणार्पण करके भी इनका प्रत्युपकार नहीं कर सकता, अर्थात् उपकार का बदला चुका नहीं सकता; तब फिर धन-दानादि को तो बात ही क्या ? इस प्रकार सम्यग् दर्शन प्राप्त होने से यह जीव अपने विगत जीवन की स्वकीय दुश्चर्या को याद कर पश्चात्ताप करता है और सन्मार्गदायी धर्माचार्य के प्रति जो विपरीत शंकाएं थीं उनका नाश करता है। कुविकल्प के प्रकार प्राणियों को कुविकल्प दो प्रकार से उत्पन्न होते हैं: --- १. कुशास्त्र श्रवण से जो मिथ्या वासनाएँ (संस्कार) उत्पन्न होती हैं। जैसे, यह त्रिभूवन (स्वर्ग-मृत्युपाताल) अण्डे से उत्पन्न हुअा है, महेश्वर (सर्व शक्तिमान् परमेश्वर) निर्मित है, ब्रह्मादि प्रणोत है, प्रकृति का विकार रूप है, क्षणिक है, विज्ञानमात्र है. शून्यरूप है इत्यादि । इन कुविकल्पों को प्राभिसंस्कारिक कहते हैं अर्थात् बाहर के संस्कारों से उत्पन्न होते हैं। २. दूसरे प्रकार के कुविकल्प सहज कुविकल्प कहलाते हैं । यह कुविकल्प सुख की अभिलाषा करने वाले, दुःख से शत्रुता रखने वाले, द्रव्यादि में आसक्ति और उसके संरक्षण में एकाग्रचित्त वाले तथा तत्त्वमार्ग से विमुख प्राणियों को होते हैं। ऐसे प्राणी अशंकनीय बातों में शंका करते हैं, अचिन्तनीय बातों की । * पृष्ठ ७६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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