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________________ उपमिति-भव-प्रपंच कथा समझें । पुण्यहीन होने के कारण उसका निष्पुण्यक नाम यथार्थता का. बोधक है। वहाँ 'इस दरिद्री को महोदर वाला कहा गया है' वैसे ही यह जीव विषयरूपी कूभोजन से अतृप्त रहते हुये भी अधिक सेवन के कारण उसे महोदर समझों। निष्पूण्यक को 'सगे-सम्बन्धियों से रहित बनाया गया है' वैसे ही यह * जोव अनादि काल से संसार की रखड़-पट्टी में अकेला ही उत्पन्न होता है, अकेला ही मरता है और स्वकृत कर्मों के अनुसार सुख-दुःख का अनुभव भी अकेला ही करता है, अतएव परमार्थतः जीव का कोई स्वजन-सम्बन्धी भी नहीं है। जैसे उस दरिद्री को दुर्ब द्धि कहा है' से ही यह जीव भी विपरीत बुद्धि और मख है, क्योंकि यह जीव अनन्त दुःखों को प्रदान करने वाले इन्द्रियों के विषयों को प्राप्त कर प्रसन्न होता है। परमार्थतः कषाय उसके शत्रु हैं फिर भी उनकी सेवा करता है तथा उनके साथ भाईचारे का व्यवहार रखता है, मिथ्यात्व जो वास्तव में ही अन्धत्व का बोधक है उसको शुभ दृष्टि रूप में ग्रहण करता है, नरक-गमन का कारणभूत अक्रिति अवस्था को प्रमोद का कारण मानता है. अनेक प्रकार की अनर्थ-परम्परा को उत्पन्न करने वाले प्रमाद समह रूप शत्रुओं की और मित्रवृन्द के समान प्रेम की दृष्टि से देखता है. धर्म-धन को लूटने वाले, चोरों के समान मन-वचन-कायरूपी प्रशभ योगों को बहत धन-सम्पदा को कमाने वाले पुत्र के समान मानता है और संसार में निविड बन्धनों से जकड़ने वाले पुत्र, स्त्री, धन, स्वर्ण प्रादि को अत्यन्त ग्राह्लाद का कारण मानता है । अतएव यह जीव सचमुच में ही दुर्ब द्धि का धारक है। पूर्व में 'इस दरिद्री को अथहीन कहा गया है' वैसे ही इस जीव के पास भी शुद्ध धर्म की एक कोड़ी भी नहीं होने से यह दारिद्र्य की मति ही है। जसे 'उस दरिद्री को पौरुषहीन कहा गया है वैसे ही यह जोव स्वकीय कर्मों का उच्छेदन करने में शक्ति-सामर्थ्यहीन होने के कारण पोरुषहोन पुरुषाकार का धारक मात्र है। जैसे भूख के कारण उस भिखारी का शरीर सूखकर कांटा हो गया था' वैसे ही कदापि तप्त नहीं होने वाली और प्रतिक्षण उग्रता के साथ बढ़ने वाली विषय से वनरूपी भूख से इस जोव का शरीर जर्जरित हो गया है, सा समझे। जैसे 'उस रंक को अनाय कहा गया है वैसे सर्वज्ञरूपी स्वामी नहीं मिलने से इस जीव को भी प्रनाथ समझें । जैसे 'जमीन पर सोते-सोते भिखारी की पसलियाँ घिस गई थीं' वैसे ही पापों की अत्यन्त कृत्सित और कठोरममि पर लोट-पोट होते रहने के कारण इस जीव के सारे अगोपांग धिस गये हों ऐसा समझें। जैसे 'उस भिखारी का शरीर धूलि-धूसरित कहा गया है वैसे ही निरन्तर बंधने वाले पापकर्म के परम गु रूप धूल से इस जीव का भी सर्वाग मलिन हो गया है। जैसे उस रंक के पहिनने के चिथड़े जाल-जाल हो रहे थे' वैसे ही महामोह की कलाओं की ओर संकेत करने वाली छोटी-छोटी ६ जा के समान लीरियों से इस जीव का शरीर ढना होने से उसकी प्राकृति अत्यन्त बीभत्स बन गई है, ऐसा समझे। 'उस दरिद्री को निन्दनीय और गरीब कहा है वैसे ही यह जीव भी विवेक के भण्डार सज्जन पुरुषों द्वारा ॐ पृष्ठ २६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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