________________
प्रस्ता १ : पाठबन्ध
३७
इस संसार कोरनगकीर नगरता केरूप में कलित (ग्रारोपित) किया है' यह युक्तिसंगत है । 'उस नगर में धवन गृहों की हाग्माला बताई है' उसे इस ससार नगर में देवलोक आदि स्थानों को समझे। 'उस नगर में बाजार-मार्ग बताये हैं उसे इस संसार नगर में एक जन्म से दूसरे जन्म में उत्पन्न होने की पद्धति समझे। विभिन्न प्रकार के व्यापार करने की किराणारूपी वस्तुओं, को' नाना प्रकार के सुख-दुःख समझे। 'उन वस्तुओं के मूल्य के समान' उन्हें यहाँ अनेक प्रकार के पुण्य-पाप समझे। उस नगर को 'विचित्र प्रकार के चित्रों से उज्ज्वल प्रतीत होने वाले अनेक देवकुलों (देव मन्दिरों) से मंडित कहा गया है। उसे इस संसार नगर में आगे पीछे की स्थिति (पूर्वापर-संदर्भ) का विचार नहीं करने वाले, भ्रम से विकल, भद्रजनों के चित्त को प्राक्षिप्त (दूषित) करने वाले विवेकशुन्य सुगत (बौद्ध), कणभक्ष (कणाद) (वैशेषिक दर्शन के प्रणेता), अक्ष पद (गौतम, नैयायिक दर्शन के प्रणेता), कपिल (साँख्य दर्शनकार) प्रादि द्वारा प्रणीत कुदर्शनों को कुमत समझे । 'नगर में हर्षोन्मत्त बालकों के कलरव की बात कही गई है' उसे यहाँ क्रोध, मान, माया, और लोभ रूपी दुर्दान्त कषायों का कोलाहल समझे । कषायों का यह कोलाहल विवेकी महापुरुषों के हृदय मेंउद्वेग एवं विक्षोभ उत्पन्न करने वाला होता है।
'यह नगर ऊंचे दुर्ग से घिरा हुमा कहा गया है। उसे यहाँ संसार नगर को चारों ओर से वेष्टित करने वाला अनुल्लंघनीय महामोह समझे। 'नगर के चारों और परिखाएं (खाइयाँ) कही गई हैं' उसे यहाँ राग द्वष. तृष्णामयी परिखाएँ समझे जो अत्यन्त गहरी हैं और विषय-वासना जल से सदा लबालब भरी रहती हैं। 'नगर में विशाल सरोवरों का उल्लेख किया है' उसे यहाँ शब्दादि विषय रूप सरोवर समझे; जो इन्द्रियादि विषयरूपी जल से सर्वदा तरंगायित हैं और जो ववेकहीन (मिथ्यात्वव सित) पक्षीरूपी प्राणियों का आधार (निवास) स्थान होने
न प्राणियों से भरा हुआ है। 'नगर-वर्णन में शत्रुओं को त्रासदायक गहन न्धकूपों का उल्लेख किया गया है' उसे इस संसार नगर में प्रिय का वियोग, अनिष्ट का सयोग, स्वजन-मरण और धन हरण आदि त्रासदायक भावों को गम्भीर अन्धकूप समझों । गम्भीर अन्धकूप के समान ही त्रासदायक भावों की जड़े इतनी
कि उनका मूल नजर नहीं आता। 'नगर में अनेक विशाल उद्यानों का वर्णन किया है' उसे यहाँ संसार नगर में प्राणियों के शरीर समझों, जो स्वकीय कमरूपी अनेक प्रकार के पृक्ष, फूल और पत्तों से लदा हुआ है। इस शरीररूपो
इन्द्रिय और मनरूपी भौंरा निरन्तर गुजारव किया करता है। प्रारम्भ में जिसे अदृष्टमूलपर्यन्त नगर कहा गया है वही संसार नगर है।
[ २ ] निष्पुण्यक दरिद्री
वहाँ 'अदृष्टमूलपर्यन्त नगर में निष्पुण्यक नामक दरिद्री है ऐसा कहा गया है' उसे इस संसार नगर में सर्वज्ञ-शासन की प्राप्ति होने से पूर्व का मेरा जीव
www.jainelibrary.org
Jain Education International
For Private & Personal Use Only